- परमात्म नीति (7)
- साधक के लिए तो प्रयोजन की सिद्धि महत्वपूर्ण है.
साधक के लिए तो प्रयोजन की सिद्धी ही महत्वपूर्ण है.
जगत की द्रष्टि में कृत्य-अकृत्य, न्याय–अन्याय, नैतिक-अनैतिक, राजसम्मत या असम्मत ये सब परिभाषाएं देश-काल के अनुरूप परिवर्तित होती रहतीं हें, पर वस्तुस्वरूप तो त्रिकाल एक रहता है उसमें परिवर्तन नहीं होता है; इसलिए स्वभाव का साधक वनवासी होकर अपने आपको एक हद तक उक्त बन्धनों से मुक्त कर लेता है.
उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.
घोषणा
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.
यह क्रम जारी रहेगा.
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