धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (तेरह्बीं क़िस्त, गतांक से आगे)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि- किस प्रकार हमारी आजतक की “मैं” की परिभाषाएं आधी-अधूरी हें और “मैं” का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती हें. उनमें क्या दोष है और “मैं” की सही परिभाषा क्या है, यह जानने के लिए पढ़िए –
जिस क्षेत्र की अपेक्षा मुझे भारतीय, राजस्थानी कहा जाता है वह तो परिवर्तनशील हें, यह तो मेरे यहाँ से वहां होते ही बदल जाते हें, तब वे मेरी पहिचान कैसे हो सकते हें?
जिस क्षेत्र की अपेक्षा मुझे भारतीय, राजस्थानी कहा जाता है वह तो परिवर्तनशील हें, यह तो मेरे यहाँ से वहां होते ही बदल जाते हें, तब वे मेरी पहिचान कैसे हो सकते हें?
मैं जिन बाह्य वैभव के संयोग या वियोग के कारण धनवान या गरीब कहलाता हूँ वे तो मुझसे अत्यंत भिन्न है, वे न तो मेरे सामान चेतन है और न ही मेरी इस देह का कोई हिस्सा, वह वैभव तो पुद्गल होते हुए भी मेरे इस पुद्गल की बनी हुई देह से भी सर्वथा भिन्न है, तब वह “मैं” कैसे हो सकता हूँ, वह दौलत मेरी पहिचान या परिभाषा कैसे बन सकती है?
दुबला-मोटा, गोरा-काला, लंबा-नाटा भी मैं देह की स्थिति के कारण कहलाता हूँ और वह भी दूसरों के सापेक्ष. जब मैं चेतन हूँ और यह देह जड़ तो इसका स्वरूप मेरी पहिचान कैसे हो सकती है?
मैं अपने मनोभावों की अपेक्षा से क्रोधी-शांत, भयभीत या निर्भय और कायर या वीर कहलाता हूँ, पर ये मनोभाव तो मेरे निरपेक्ष स्वभाव नहीं हें, ये तो संयोगो के लक्ष्य से उत्पन्न क्षणिक भाव हें, ये मेरी पहिचान, मेरे नाम कैसे हो सकते हें?
मेरे उक्त सभी कथित नाम या परिभाषाएं समय, स्थान और संयोग-वियोग के साथ-साथ बदल जाते हें पर मैं तब भी बना रहता हूँ, तब ये सब मेरे नाम, मेरी परिभाषाएं और मेरा स्वरूप कैसे हो सकते हें.
मैं तो वह हूँ जो बना रहूँ, कभी नष्ट न होऊं. हर स्थान पर बैसा ही रहूँ, वही रहूँ. जो सदा रहूँ, एक जैसा रहूँ. जिसके होने के लिए किसी के होने या न होने की अपेक्षा न हो और जो मैं हूँ वह कोई और न हो.
मेरा वह नाम मेरी परिभाषा (लक्षण) बन सकता है जो सदा, सर्वत्र अपरिवर्तनीय रहे एवं जो अनन्य और अद्वितीय हो.
मुझे दिए गए उपरोक्त कोई भी नाम, मेरे लक्षण होने की उक्त कसौटी पर खरे नहीं उतरते हें, इसलिए मैं बो नहीं. बो “मैं” नहीं.
अब तक ऊपर हमने “मैं” के जिन-जिन नामों की चर्चा की उनमें मात्र “मनुष्य” ही एक ऐसा नाम है जो हमारे वर्तमान जीवन में हर स्थान पर, हर समय और हर हाल में सत्य है अन्य तो सब यहाँ हें वहां नहीं, अभी हें कभी नहीं.
तो क्या हम यह मानलें कि “मैं मनुष्य हूँ” ?
“मैं मनुष्य हूँ” यह परिभाषा अब हमें समझ में आने लगी है, हम इसे स्वीकार करने को तैयार हें. क्योंकि“मेरा अब तक का अनुभव यह कहता है कि मेरी यह परिभाषा कभी भी गलत नहीं होगी , देश-काल की परिस्थियों के अनुरूप भले ही मेरे अन्य नाम बदलते रहें पर मैं मनुष्य तो सदा ही रहूँगा.”
नहीं ! यह भी सत्य नहीं है क्योंकि यह अनन्य नहीं, अद्वितीय नहीं है, मैं मनुष्य हूँ यह सही है पर अन्य अनेकों और भी तो मनुष्य हें !
भाई ! इस परिभाषा में भी तो “अतिव्याप्ति” दोष आता है.
यह तो सही है कि आप मनुष्य हें पर सिर्फ आप नहीं, आपके अलावा भी मनुष्य तो अनेक हें !
यह तो सही है कि “भारतीय रेल्वे आपकी संपत्ति है“ पर सिर्फ आपकी नहीं; आपके जैसे ही अन्य सभी भारतीय नागरिकों की भी.
जैसे आपका वह मकान जिसकी रजिस्ट्री आपके नाम पर है, आपका है, वैसी ये भारतीय रेल आपकी नहीं है. यह आपकी भी है और सबकी भी, आपका मकान सिर्फ आपका है.
यही तो कारण है कि यदि कोई आपको “हे मानव !” कहकर पुकारे तो आप मुड़कर नहीं देखते हें.
आपको यह लगता ही नहीं कि कोई आपको बुला रहा है.
जिस नाम से आप स्वयं अपने आप को नहीं पहिचानते हें, आखिर वह नाम आपका कैसे हो सकता है? इसीलिये आपने अपना एक अलग नाम रख लिया – “कमल या विमल”
तो क्या आपका यह नाम दोष रहित है ?
नहीं क्योंकि भीड़ में यदि कोई आबाज लगाये “कमल” तो एक साथ १०-२० लोगों की गर्दनें पीछे की और मुड जाती हें. जाहिर है वे सभी कमल हें.
तब आप अपना नाम “कमल जैन” लिखने लगे, पर उस भीड़ में कमल जैन भी ४ निकले.
तात्पर्य यह कि ये कोई भी नाम आपका अपना सम्पूर्ण, अनन्य प्रतिनिधित्व नहीं करते हें.
चलिए मान लिया कि आपने अपने नाम के साथ अपने पिता का नाम और अपना सम्पूर्ण पता भी लिख लिया “कमल,पुत्र निर्मल, अ-१० बापूनगर, जयपुर वाले“, और अब वह मात्र आपकी ओर ही इंगित करता है.
तो क्या “मैं” की यह परिभाषा सही और दोष रहित है ?
नहीं !
क्यों ?
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