परमात्म नीति - (३)
हम गुलाम हें या मर्जी के मालिक
यदि आजीविका के लिए किसी की चाकरी भी करनी पड़े तो वह भी उद्देश्पूर्ण ही होनी चाहिए, हम वही कार्य स्वीकार करें जो हमारा आदर्श हो, जिसे करने से हमें संतुष्टी मिले, लक्ष्य की प्राप्ति का आनन्द मिले और सफलता का अहसास हो.
यदि लक्ष्यहीन ही तू सिर्फ़ निर्देशों का पालन करता है, तुझे न तो लक्ष्य का पता ही है और न ही लक्ष्य प्राप्ति की अभिलाशा ही. अपने श्रम के परिणाम का तेरे लिए कोई महत्व नहीं है.
जीत में न तो तेरी जीत है और न ही हार में तेरी हार.
तब तू तो मात्र गुलाम सेवक ही है क्योंकि तेरी मानसिकता ही गुलामी करने की है.
क्या फर्क पड़ता है कि इसकी गुलामी करे या उसकी.
रे
भृत्य तू बस भृत्य है, यदि अंध हो पालन करे
अन्य
के निर्देश को , सिर माथ पर धारण करे
रूचि,आदर्श
की परवाह न हो, आदेश हो वैसा करे
क्रिया,
विधि, परिणाम का, यदि नहीं चिंतन करे
घोषणा
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.
यह क्रम जारी रहेगा.
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