Thursday, September 3, 2015

परमात्म नीति (40) - हाँ! यह सत्य है कि हम अपने निकटतम लोगों को भी नहीं पहिचानते हें.

इसी आलेख से -

-  "हम व्यक्तिओं को नहीं मात्र उनसे अपने रिश्ते को पहिचानते हें. किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व से हमारा परिचय मात्र उससे हमारे रिश्ते की सीमाओं तक ही सीमित रहता है.
   हम उन्हें उस रूप में जानते हें जैसे वे हमारे समक्ष दिखना चाहते हें, व्यवहार करते हें.

- "हम अपने निकटतम व्यक्ति को भी पहिचानते नहीं हें.
जिन्हें हम पहिचानते नहीं हें उन्हें अनजान कहा जाता है और अनजान लोगों के प्रति सावधान रहना ही योग्य है."

-  "जाने-पहिचाने अनजाने, अजनबी अनजानों से अधिक अनजाने होते हें क्योंकि वे पर्दे में रहते हें. अजनबी तो पहिचाने जाते हें क्योंकि अजनबी से लोग पर्दा नहीं रखते हें."


- परमात्म नीति (40)

- हाँ! यह सत्य है कि हम अपने निकटतम लोगों को भी नहीं पहिचानते हें.

                      द्वैध व्यक्तित्व 

हम व्यक्तिओं को नहीं मात्र उनसे अपने रिश्ते को पहिचानते हें. किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व से हमारा परिचय मात्र उससे हमारे रिश्ते की सीमाओं तक ही सीमित रहता है.
हम उन्हें उस रूप में जानते हें जैसे वे हमारे समक्ष दिखना चाहते हें, व्यवहार करते हें.

हमारे उक्त रिश्ते से बाहर उस व्यक्ति का अन्य लोगों के समक्ष व्यक्तित्व/व्यवहार कैसा है, हम जीवनभर नहीं जान पाते हें.

प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व बहुआयामी होता है. व्यक्तित्व का आयाम भी इतना बड़ा होता है कि दो अलग-अलग लोगों के समक्ष उसका व्यवहार एक दूसरे से एकदम विपरीत किस्म का होता/होसकता है.

यदि हम अनुमान करना ही चाहते हें कि किसी के व्यक्तित्व में कितनी और किस तरह की विविधता पाई जा सकती है तो कहीं और नहीं, हमें स्वयं अपने ही अन्दर झांककर देखना होगा कि हम स्वयं ही किसतरह अलग-अलग लोगों के साथ, अलग-अलग समय व स्थान पर, अलग-अलग परिस्थितियों में कितना अलग-अलग विरोधाभासी व्यवहार करते हें. क्योंकि जितनी निकटता से हम अपनेआप को जान सकते हें उतना किसी अन्य को पहिचान ही नहीं सकते हें.

किसी के समक्ष हम अत्यंत विनम्र होते हें तो किसी के समक्ष अत्यंत कठोर. एक व्यक्ति के साथ हम अत्यंत उदारता का व्यवहार करते हें तो अन्य के साथ हमही अत्यन्त अनुदार होते हें. हम किसी के प्रति क्रूर और किसी अन्य के प्रति दयालू होते हें. कोई हमें रसिया व्यक्ति के रूप में पहिचानता है तो कोई एकदम रूखे व्यक्ति के रूप में. कभी हम अत्यंत सहिष्णुता का व्यवहार करते हें तो कभी एकदम अड़ियल. कभी हमें गाली भी विचलित नहीं करती है तो कभी हम प्रसंशा से भी परेशान हो जाते हें. कभी हम बिना कुछ किये ही थक जाते हें तो कभी कठोर श्रम के बाद भी नहीं थकते हें. कभी हमें मिष्ठान्न भी नहीं रुचता तो कभी करेला भी चटकारे लेकर खाते हें.

और तो और हम मानव भी तभीतक हें जबतक हमारी पशुता प्रकट नहीं होती है, अन्यथा हम सभी के अन्दर एक पशु भी छुपा बैठा है.




कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा व्यक्तित्व और व्यवहार व्यक्तियों, स्थानों, समय और परिस्थितियों के साथ-साथ बदलता रहता है, हम सदा एक जैसे नहीं होते हें. यही हमारे व्यक्तित्व की विविधता है.

जैसे हम हें, सभी लोग बैसे ही तो हें. इस मायने में कोई किसी से भिन्न नहीं है.

हाँ! इतना अवश्य है कि प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक रूप हर व्यक्ति को हर स्थान पर हमेशा देखने को नहीं मिलता/मिल सकता है. बस इसीलिये हम हर व्यक्ति को मात्र किसी एक रूप में ही जानते हें, और अधूरे ज्ञान का नाम भी अज्ञान ही होता है. इसीलिये मैं कहता हूँ कि हम अपने निकटतम व्यक्ति को भी पहिचानते नहीं हें.

जिन्हें हम पहिचानते नहीं हें उन्हें अनजान कहा जाता है और अनजान लोगों के प्रति सावधान रहना ही योग्य है.

जाने-पहिचाने अनजाने अजनबी अनजानों से अधिक अनजाने होते हें क्योंकि वे पर्दे में रहते हें. अजनबी तो पहिचाने जाते हें क्योंकि अजनबी से लोग पर्दा नहीं रखते हें. 





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उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.

घोषणा 


यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.

यह क्रम जारी रहेगा. 



- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

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