इसी आलेख से -
- "यदि परिवार और समाज के सदस्य के रूप में हमारे कुछ अधिकार हें तो कुछ कर्तव्य भी हें. जहां अधिकार का उपभोग करने वाले लोग मात्र उपभोक्ता हें, कर्तव्यों का पालन करने वाले लोग प्रदाता भी हें.
जो लोग अपने कर्तव्यपालन के प्रति सजग रहते हें वे सहज ही अधिकारों का उपभोग भी निर्द्वंद्व होकर कर पाते हें और जो कर्तव्यपालन के प्रति लापरवाह रहते हें उनके अधिकार छिन भी जाते हें, उन्हें प्रताड़ित भी होना पड़ता है और दण्डित भी."
- "प्रकृति का स्वाभाविक न्याय का सिद्धांत इन व्यवहारों को नियंत्रित करता है और प्राक्रतिक वस्तुव्यवस्था में अन्याय संभव नहीं है. यदि हमें कहीं अन्याय होता सा दिखाई देता है तो वह हमारा भ्रम है, यदि हम गहराई से सही और व्यापक परिपेक्ष्य में विचार करेंगे तो उसे सही व न्यायपूर्ण ही पायेंगे."
परमात्म नीति - (41)- "प्रकृति का स्वाभाविक न्याय का सिद्धांत इन व्यवहारों को नियंत्रित करता है और प्राक्रतिक वस्तुव्यवस्था में अन्याय संभव नहीं है. यदि हमें कहीं अन्याय होता सा दिखाई देता है तो वह हमारा भ्रम है, यदि हम गहराई से सही और व्यापक परिपेक्ष्य में विचार करेंगे तो उसे सही व न्यायपूर्ण ही पायेंगे."
हमारे कुछ कृत्य हमें प्यार व सम्मान दिलाते
हें और कुछ कृत्य हें जो हमें घ्रणा और दंड का
पात्र बनाते हें –
परिवार और समाज के सदस्य के रूप में कुछ लोग अत्यंत
आदर के पात्र बनते हें और कुछ लोग अपमान के, क्यों होता है ऐसा?
आखिर परिजन और समाज हमारा अपना ही तो है, उसके सदस्य
हमारे अपने लोग हें तो वे क्यों नहीं सभीको, सदैव प्यार और सन्मान ही नहीं देते
हें?
आखिर वे अपने ही लोगों को प्रताड़ित करते ही क्यों हें?
यह परिवार और समाज के प्रति हमारे योगदान पर
निर्भर करता है कि प्रतिदान में हमें कैसा व्यवहार मिले.
यदि परिवार और समाज के सदस्य के रूप में हमारे कुछ
अधिकार हें तो कुछ कर्तव्य भी हें. जहां अधिकार का उपभोग करने वाले लोग मात्र
उपभोक्ता हें, कर्तव्यों का पालन करने वाले लोग प्रदाता भी हें.
जो लोग अपने कर्तव्यपालन के प्रति सजग रहते हें वे
सहज ही अधिकारों का उपभोग भी निर्द्वंद्व होकर कर पाते हें और जो कर्तव्यपालन के
प्रति लापरवाह रहते हें उनके अधिकार छिन भी जाते हें, उन्हें प्रताड़ित भी होना
पड़ता है और दण्डित भी.
सन्मानित और दण्डित करने वाले परिजन, संबंधी और मित्र
नहीं होते हें, उनकी चले तो वे तो अपने सम्बन्धी अपराधी को भी पुरुस्कृत करदें और प्रतिद्वंद्वी उपकारी को तिरस्कृत भी.
प्रकृति का स्वाभाविक न्याय का सिद्धांत इन
व्यवहारों को नियंत्रित करता है और प्राक्रतिक वस्तुव्यवस्था में अन्याय संभव नहीं
है. यदि हमें कहीं अन्याय होता सा दिखाई देता है तो वह हमारा भ्रम है, यदि हम
गहराई से सही और व्यापक परिपेक्ष्य में विचार करेंगे तो उसे सही व न्यायपूर्ण ही पायेंगे.
हमारे कर्तव्य चार प्रकार के होते हें-
- - वे अपरिहार्य कर्तव्य जिनके बिना जीवन संभव ही नहीं
है और “मरता क्या न करता” सबको करने ही पड़ते हें.
- - वे अत्यंत आवश्यक कर्तव्य जो हर व्यक्ति को करने ही होते
हें और इसलिए वह करता ही है, फलस्वरूप उसका जीवन सामान्य ढंग से चलता है. यही उसका
पुरुस्कार है. यह न करने पर उसे तिरस्कृत और अपमानित होना पड़ता है.
- - वे कार्य जो न किये जाएँ तो कोई हानि तो नहीं पर किये
जाने पर value add अवश्य करते हें. ऐसे काम व्यक्ति को लोकप्रिय और सम्मान का
पात्र बनाते हें. ऐसे काम न करने पर दंड मात्र यही है कि हम सामान्यजन की सीमा में
ही सीमित रहते हें विशिष्ट नहीं बन पाते हें.
- - वे कृत्य जो परिवार व समाज की सम्रद्धी, विकास, सुख
और शान्ति में विशेष योगदान देते हें. ऐसे कृत्य करने वाले लोग समाज और परिवार में
अतिविशिष्ट स्थान पाते हें. ऐसे कार्य न करपाने का अन्य कोई दंड नहीं है.
उत्तम विकल्प तो यह है कि हम अतिविशिष्ट कार्य करके
अतिविशिष्ट का दर्जा पायें. यदि यह संभव न हो तो कमसे कम हम वह तो करें जिससे हमें
सम्मान हासिल हो. अपने मूलभूत कर्तव्यों के पालन में असफल रहकर अपमान और प्रताड़ना
का पात्र बनना तो योग्य नहीं है, यह तो दुर्भाग्यपूर्ण है, आखिर किसी की ऐसी क्या
मजबूरी हो सकती है कि कोई ऐसा करे?
यहतो भ्रम है कि कोई यह माने कि वह अपने परमआवश्यक कर्तव्यों
से बच सकता है.
यह तो होही नहीं सकता है, तेरे ये परिजन, ये समाज
तुझसे वह तो करबा ही लेंगे साथ ही उससे बचने के तेरे प्रयासों के लिए वे तुझे
अपमानित भी करेंगे और दण्डित भी.
उक्त कर्तव्य तो तेरे सम्मानजनक दंग से सामान्य जीवन
जीने की अपरिहार्य कीमत है. ऐसा करके तू किसी पर अहसान नहीं कर रहा है.
क्या तू स्वयं भी अपने ही उन परिजनों का उपहास नहीं
करता है, उन्हें अपमानित नहीं करता है जो अपने कर्तव्यों के पालन में असफल रहते
हें?
तू स्वयं ही उन्हें मात्र प्रेरित ही नहीं वरन मजबूर भी करता है कि वे
ऐसा करें? तब तू स्वयं भी अपने परिजनों और समाज के तेरे प्रति उक्त व्यवहार से बच कैसे सकता है?.
यदि तू परिजनों और समाज से दया, कृपा, अनुकम्पा और माफी की आशा करता है
तब भी व्स्तुस्वरूप में तो यह संभव है नहीं. वस्तुस्वरूप तो तुझे माफ़ करेगा नहीं.
माफी भी न्याय के विरुद्ध है, यह भी अन्याय का ही एक अन्य प्रकार है जो कि
वस्तुस्वरूप (प्राकृतिक न्याय) में संभव ही नहीं है.
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यह क्रम जारी रहेगा.
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उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.
- घोषणा
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.
यह क्रम जारी रहेगा.
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
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