Saturday, September 5, 2015

परमात्म नीति – (42) - महानलोग अपने महान योगदान के लिए परिजनों, समाज और देश से अपने प्रति किसी भी प्रकार की कृतज्ञता की अपेक्षा नहीं करते हें.

इसी आलेख से - 
- "महानलोग किसी से भी अपने महान क्र्त्यों के प्रति कृतज्ञता की अपेक्षा नहीं करते हें क्योंकि वे यह जानते हें कि यदि महान तो वे हें, सामने वाले लोग नहीं."

- "महानलोग अपने महान क्र्त्यों के प्रति प्रवल प्रतिरोध की संभावना से भी परिचित तो होते हें पर वे उससे विचलित नहीं होते हें."

- "महान लोगों का महान सोच व कृत्य सामान्यजन की द्रष्टि में अव्यावहारिक सनक ओर पागलपन होता है और महान लोगों की द्रष्टि में सामान्यजन का सोच और व्यवहार उनकी दया की पात्र नासमझी और नादानी."

- "सामान्यजन महानक्रत्यों से असहमत ही बने रहते हें क्योंकि वे उक्त सफलता को मात्र संयोग मानलेते हें."



- परमात्म नीति – (42)



- महानलोग अपने महान योगदान के लिए 

परिजनों, समाज और देश से अपने प्रति किसी 

भी प्रकार की कृतज्ञता की अपेक्षा नहीं करते हें.







अपने उपकारी के प्रति कृतज्ञ होना भी महानता ही है और जनसामान्य महान नहीं होते हें, वे सामान्य ही होते हें. 

उक्त तथ्य से भलीभांति परिचित वे महानलोग किसी से भी अपने महान क्र्त्यों के प्रति कृतज्ञता की अपेक्षा नहीं करते हें क्योंकि वे यह जानते हें कि महान तो वे हें, सामने वाले लोग नहीं. वे तो सामान्य सोच वाले सामान्यजन हें. 

सामान्यजन से असामान्य (महान) व्यवहार की अपेक्षा रखना विवेकपूर्ण नहीं है. इसीलिये उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं होती है.

महानलोग अपने महान क्र्त्यों के प्रति प्रवल प्रतिरोध की संभावना से भी परिचित तो होते हें पर वे उससे विचलित नहीं होते हें. वे यह जानते हें कि उनका सोच और कृत्य जनसामान्य के सोच की सीमाओं से बाहर की वस्तु है. जनसामान्य न तो इस तरह से सोच सकता है और न ही इस प्रकार के सोच से सहमत ही हो सकता है.

महान लोगों का महान सोच व कृत्य सामान्यजन की द्रष्टि में अव्यावहारिक सनक ओर पागलपन होता है और महान लोगों की द्रष्टि में सामान्यजन का सोच और व्यवहार उनकी दया की पात्र नासमझी और नादानी.
  
सद्परिणाम देख लेने के और उपभोग के बाद भी सामान्यजन महानक्रत्यों से असहमत ही बने रहते हें क्योंकि वे उक्त सफलता को मात्र संयोग मानलेते हें.

क्यों न मानें?
उक्त महानताभरी नीतियों की असफलता के बारे में उनके मष्तिष्क कोई संदेह कभी पैदा ही नहीं होता है.

सामान्य व विशिष्टजन, मानवसमाज की यह दो विभिन्न प्रजातियाँ ही हें जो कभी एक दूसरे से सहमत हो ही नहीं सकती हें, हाँ! मत परिवर्तन करके कुछ लोग इधर से उधर अवश्य जासकते हें.


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उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.

घोषणा 


यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.

यह क्रम जारी रहेगा. 
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल   

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