इसी आलेख से -
- अपात्र के लिए कहीं कोई स्थान नहीं.
- संसार में टिकने के लिए भी कुछ पात्रताएं चाहिए, आखिर संसार के लिए अपात्र जीवों को इस संसार में टिकने कौन देगा? उन्हें तो मोक्ष जाना ही होगा.
- संसार में रहने की पात्रता है मिथ्यात्व, मोह-रागद्वेष, कषाय, कर्ताबुद्धी. यदि मिथ्यात्व न रहे तो एक निश्चित समय के अन्दर तुझे संसार छोड़ना ही होगा.
- पत्नी इसकी सुनती नहीं, बेटा इसकी बातों पर ध्यान नहीं देता, समाज को इसकी परवाह नहीं, आखिर अपना दुखड़ा ये सुनाये किसे ? कोई तो सुनने वाला चाहिए न! ऐसे में सिर्फ ये संत ही इन्हें अपनी आशाओं और आकांक्षाओं के एकमात्र केंद्रबिंदु दिखाई देते हें.
जहां यहसब है वहां सबकुछ है, सबलोग जुट जाते हें.
- एक संत जो उस सांसारिक नागरिक आचारसंहिता का पालन नहीं करेगा वह नगर में रह कैसे सकेगा, उसे तो वन जाना ही होगा.
- गृहस्थों को निन्दा-प्रसंशा चाहिए, आलोचना-प्रत्यालोचना चाहिए, प्रतिशोध व प्रतिबाद चाहिए, हाहाकार-जयजयकार चाहिए. जहां यह सब न हो उनका (गृहस्थों का) मन नहीं रमता है. वे वहाँ क्यों जाएँ, क्या करें?
- यह तेरी चाहत से तय नहीं होता है कि तू कहाँ रहे, कैसे रहे. तेरे कृत्य, तेरी वृत्तियाँ और तेरा चरित्र निर्धारित करते हें कि तू कहाँ रहेगा, कैसे रहेगा, कब तक रहेगा.
- भारहीन वस्तुएं जलसमूह के उच्चतम स्तर (सतह) पर आही जाती हें, आखिर वे पेंदे में टिक कैसे सकती हें?
धुंआ ऊपर उठ ही जाता है, चांदनी धरा पर बिखर ही जाती है.
- परमात्म नीति – (43)
- आत्मार्थी बन तो सही, स्वत: वनवासी हो ही जाएगा –
कारागार में मात्र वही रह सकता है जिसमें वहां रहने की पात्रता (अपराधपूर्ण कृत्य व अपराधी व्रत्ती) हो, अपात्र के लिए कहीं कोई स्थान नहीं.
संसार में टिकने के लिए भी कुछ पात्रताएं चाहिए, आखिर संसार के लिए अपात्र
जीवों को इस संसार में टिकने कौन देगा? उन्हें तो मोक्ष जाना ही होगा.
संसार में रहने की पात्रता है मिथ्यात्व, मोह-रागद्वेष, कषाय, कर्ताबुद्धी.
यदि मिथ्यात्व न रहे तो एक निश्चित समय के अन्दर तुझे संसार छोड़ना ही होगा.
नगर में नागरिकों के बीच रहने के लिए नागरिकता के लिखित-अलिखित नियम-कानूनों
और तथाकथित सभ्यता की आचारसंहिता का पालन करना आवश्यक है.
एक संत जो उस सांसारिक नागरिक आचारसंहिता का पालन नहीं करेगा वह नगर में रह कैसे सकेगा, उसे तो वन जाना ही होगा.
प्रत्येक बात में लाभ-हानि का विचार, इस हाथ लेना उस हाथ देना (give &
take), तुष्टीकरण (appeasement), एक दूसरे का मानपोषण (egosatisfection), जैसे को
तैसा (tit for tat), खाने के और-दिखाने के और, व्यक्त में और अव्यक्त में कुछ और, स्वार्थ,
पक्षपात, गुटबाजी, राजनीति आदि मानवसमाज की स्वाभविक वृत्तियाँ हें और मानवमात्र
के सभी कार्य व गतिविधियां मात्र इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होती हें. बिना
व्यक्तिगत लाभ और स्वार्थ के वह कुछ नहीं करता है. धर्म हो या कर्म, इसका कोई
अपवाद नहीं. संसारी हो या सन्त उसके लिए इस कसौटी से कोई परे नहीं.
इसे विरागी सन्तों से भी स्नेह चाहिए, मान चाहिए, निकटता का अपनत्व भरा व्यवहार चाहिए, सुख-दुःख बांटने वाले, जादू-टोना करने
वाले चमत्कारी संत चाहिए.
पत्नी इसकी सुनती नहीं, बेटा इसकी बातों पर ध्यान नहीं देता, समाज को इसकी परवाह नहीं, आखिर अपना दुखड़ा ये सुनाये किसे ? कोई तो सुनने वाला चाहिए न! ऐसे में सिर्फ ये संत ही इन्हें अपनी आशाओं और आकांक्षाओं के एकमात्र केंद्रबिंदु दिखाई देते हें.
जहां यहसब है वहां सबकुछ है, सबलोग जुट जाते हें.
पत्नी इसकी सुनती नहीं, बेटा इसकी बातों पर ध्यान नहीं देता, समाज को इसकी परवाह नहीं, आखिर अपना दुखड़ा ये सुनाये किसे ? कोई तो सुनने वाला चाहिए न! ऐसे में सिर्फ ये संत ही इन्हें अपनी आशाओं और आकांक्षाओं के एकमात्र केंद्रबिंदु दिखाई देते हें.
जहां यहसब है वहां सबकुछ है, सबलोग जुट जाते हें.
गृहस्थों को निन्दा-प्रसंशा चाहिए, आलोचना-प्रत्यालोचना चाहिए, प्रतिशोध व
प्रतिबाद चाहिए, हाहाकार-जयजयकार चाहिए. जहां यह सब न हो उनका (गृहस्थों का) मन नहीं रमता है. वे वहाँ क्यों जाएँ, क्या करें?
वे साधु को साधु नहीं रहने देते, अपने सामान ही बना लेते हें, अपनी आवश्यकताओं
की पूर्ती के श्रोत व साधन.
वे संत जो आत्मार्थी हें, मात्र आत्मसाधक हें, जिनके पास यह सब नहीं है, जिन्हें आत्मा के अलावा और कुछ नहीं चाहिए, जिनके पास मात्र आत्मा की बात है उनकी बातें किसी
को रुचती नहीं, उनके पास कोई फटकता तक नहीं.
वे नागरिकों के बीच नगर में रहने के लिए मिसफिट हें, हालांकि उन्हें कोई
चाहिए भी नहीं पर इस तरह उन्हें नगर में रहने भी कौन देगा? बिना कुछ किये-बिना कुछ
दिए.
जहां गृहस्थों की व्रत्ति को संतुष्टी मिलेगी, उनकी चाहत पूरी होगी वहां मेले
लगेंगे, धनबर्षा होगी, जयजयकार होगी. जहाँ यह सब न होगा वहां कोई न होगा, कुछ नहीं
होगा.
उन आत्मार्थी संतों को तो जंगल में जानाही होगा, उन्हें तो वनवासी होना ही होगा.
यह तेरी चाहत से तय नहीं होता है कि तू कहाँ रहे, कैसे रहे. तेरे कृत्य,
तेरी वृत्तियाँ और तेरा चरित्र निर्धारित करते हें कि तू कहाँ रहेगा, कैसे रहेगा,
कब तक रहेगा.
चाहत तो सभी सामनायजनों हो सकती है कि अधिकार सम्पन्न होकर महलों रहें, सबका प्यार
व सम्मान अर्जित करें, पर कितने ऐसा कर पाते हें?
प्रक्रति की ऐसी व्यवस्था है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वत: ही उपयुक्त स्थान
पर पहुँच जाता है. प्रत्येक कदम पर इस प्रकार के इतने फ़िल्टर लगे हें कि
अनुपयुक्त व्यक्ति स्वत: ही छनकर बाहर होही जाता है.
कोई दरिद्री यदि किसी पिछड़े इलाके में विपन्नता (साधनहीन,penurious) पूर्वक
रहता हो तो सुख-साधनों की चाहत में किसी सर्वसुविधासम्पन्न महानगर में पहुँच जाने मात्र
से सुविधासंपन्न नहीं होजाएगा, प्रकृति का यह नियम है कि वह वहां भी स्वयं ही अपने लिए उपयुक्त स्थान पर
जा ही पहुंचेगा या सुविधासंपन्न स्थान पर वैभव के बीच भी विपन्न और साधनहीन गुलाम
बनकर ही रहेगा.
सर्वप्रथम तो नगर के ऐश्वर्यशाली हिस्से में उसे नतो उसकी हैसियत के
अनुसार कीमत पर आवास मिलेगा और न ही भोजन;
तो वह अनेक छन्नों से छनता हुआ अपनी हैसियत के अनुसार उपयुक्त हिस्से
(दरिद्रियों की वस्ती) में जा पहुंचेगा.
वहां पहुंचकर भी यदि वह व्यसनी है तो सात्विक लोगों के बीच नहीं टिकेगा वरन
व्यसन की पूर्ति के अड्डे पर पहुँच जाएगा. अपनी संचित तुच्छ सी निधि भी व्यसनों
में गंबाने के बाद मदिरापान करके किसी गंदी नाली में जा पडेगा; क्योंकि अन्यत्र तो
कहीं भी उसे टिकने कौन देगा? पुलिस से लेकर गली के कुत्ते तक उसे उसके उपयुक्त
स्थान तक पहुंचाने में अपना-अपना सम्पूर्ण योगदान करेंगे.
यदि वह थोडा सौभाग्यशाली हुआ तो सम्पन्न वस्ती के किसी धनाड्य श्रेष्ठी के
यहाँ चाकर बनकर हवेली के उपेक्षित पड़े गंदे पिछ्बाडे में रहकर बची-खुची जूँठन का
हिस्सेदार बन जाएगा.
तात्पर्य यह है कि क्षेत्र-काल से निरपेक्ष, प्रत्येक व्यक्ति मात्र
अपनेलिए उपयुक्त सुविधाएं व व्यवहार ही पाता है, अन्य कुछ नहीं.
उक्त तथ्य मात्र किसी भाग्यहीन दरिद्री के लिए ही सत्य नहीं हें वरन उच्चचरित्रवान,
सौभाग्यशाली, गुणसम्पन्न व्यक्तियों के लिए भी इसी प्रकार प्रभावी होता है. वे
कहीं भी क्यों न छुपे हों, अपने लिए उपयुक्त उच्च स्थान पर पहुँच ही जायेंगे. आखिर
हीनस्तर के जघन्यस्थलों पर उन्हें टिकने कौन देगा?
भारहीन वस्तुएं जलसमूह के उच्चतम स्तर (सतह) पर आही जाती हें, आखिर वे
पेंदे में टिक कैसे सकती हें?
धुंआ ऊपर उठ ही जाता है, चांदनी धरा पर बिखर ही जाती है.
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यह क्रम जारी रहेगा.
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.
- घोषणा
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.
यह क्रम जारी रहेगा.
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