इसी आलेख से -
- कोई भी व्यक्ति (शिक्षक) सम्पूर्ण तो हो ही नहीं सकता है, तो क्या हम किसी से कुछ सीखेंगे ही नहीं?
- हमें मात्र उस व्यक्ति के उस ज्ञान पर लक्ष्य रखना चाहिए जो हम उससे सीखना चाहते हें और उसके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं परसे हमें अपना ध्यान हटा लेना ही योग्य है.
- क्योंकि वे एक दूसरे के सभी प्रकार के कमजोर क्षणों के साक्षी बने होते हें, ऐसे में उनमें एक दूसरे के प्रति निर्भरता का दृढ आत्मविश्वास बना ही नहीं रह पाता है जो किसीसे कुछ सीखने के लिए जरूरी है.
- हमारा गुरु वह व्यक्ति हो सकता है जो एक आदर्श शिक्षक ही नहीं वरन एक आदर्शपुरुष (ideal human) भी हो. हम मात्र उससे ज्ञान ही प्राप्त न करें, मात्र कोई कला ही न सीखें वरन उसकी हर अदा प्रेरणादायी हो, उसका हर व्यवहार अनुकरणीय हो. उसकी वृत्ति, चरित्र, स्वभाव, रीतिनीति, व्यवहार, बातें, भाषा, पहिनावा, चालढाल, उठना-बैठना, हावभाव, भोजन, घरद्वार, व्यवसाय सभी कुछ.
- परमात्म नीति – (44)
- शिक्षक और गुरु में फर्क समझना महत्वपूर्ण है
और आवश्यक भी.
मैं दुर्भाग्यशाली रहा कि मैं अपने शिक्षकों से कुछ भी नहीं सीख सका.
सीखता भी कैसे? मुझे उनमें (उनके व्यक्तित्व में) गुरुता के शिवाय अन्य
सबकुछ दिखाई देता था.
मैं स्वभाव से ही सर्वस्व समर्पण करने की वृत्ति वाला व्यक्ति हूँ, पर मैं
इतना आसान भी नहीं कि कहीं भी समर्पित हो जाऊं.
जहां सर्वस्व समर्पण करना हो वह पात्र भी तो होना चाहिए न !
और मुझे कहीं वह
पात्रता ही दिखाई न दी.
आज मैं महसूस करता हूँ कि मेरा यह चिंतन सही नहीं था. निश्चित ही इसमें
सुधार (परिवर्तन) की आवश्यक्ता है.
कोई भी व्यक्ति (शिक्षक) सम्पूर्ण तो हो ही नहीं सकता है, तो क्या हम किसी से कुछ
सीखेंगे ही नहीं?
प्रत्येक शिक्षक के प्रति न तो सर्वस्व समर्पण ही आवश्यक है और न ही प्रत्येक
शिक्षक का गुरु होना.
प्रत्येक व्यक्ति जो किसी एक बिषय का ज्ञाता (विशेषज्ञ) है या किसी
एक कला में निपुण है और अपनी आजीवका के लिए या किसी अन्य भावना से प्रेरित होकर अपना
वह ज्ञान/कला अन्य लोगों को सिखलाता है, वह प्रत्येक व्यक्ति कोई संत तो है नहीं,
उसमें न तो गुरुता का भाव है और न ही उसकी चाह. अपनी विशेषज्ञता के बिषय के अलावा तो वह मात्र
एक साधारण व्यक्ति ही है न !
हमें मात्र उस व्यक्ति के उस ज्ञान पर लक्ष्य रखना चाहिए जो हम उससे सीखना
चाहते हें और उसके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं परसे हमें अपना ध्यान हटा लेना ही
योग्य है.
ऐसे व्यक्ति को हम मात्र शिक्षक की श्रेणी में रख सकते हें और हमें एक
शिक्षक के अनुरूप उसका उपयुक्त सम्मान करना ही चाहिए. यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो
उससे कुछ सीखेंगे कैसे?
निष्कर्ष यह है कि हमें शिक्षण और व्यक्तित्व को प्रथक करके देखना होगा. हम
पाते हें कि लगभग प्रत्येक पति-पत्नी एक दूसरे से कुछ भी नहीं सीख पाते हें और
अधिकतम पुत्र-पुत्री भी अपने माता-पिता के अनुगामी नहीं बन पाते हें.
क्यों?
क्योंकि वे एक दूसरे के सभी प्रकार के कमजोर क्षणों के साक्षी बने होते
हें, ऐसे में उनमें एक दूसरे के प्रति निर्भरता का दृढ आत्मविश्वास बना ही नहीं रह
पाता है जो किसीसे कुछ सीखने के लिए जरूरी है.
यदि हम शिक्षण की प्रक्रिया को जीवन के अन्य पहलुओं से सम्पूर्णत: प्रथक
करदें तो यह विसंगति दूर हो सकती है. तब
बाबजूद अन्य बिषयों में कमजोर होने के हम किसी भी व्यक्ति से वह बिषय सीखने में
हिचकेंगे नहीं जिसमें उसकी विशेषज्ञता है.
हमारा गुरु वह व्यक्ति हो सकता है जो एक आदर्श शिक्षक ही नहीं वरन एक
आदर्शपुरुष (ideal human) भी हो. हम मात्र उससे ज्ञान ही प्राप्त न करें, मात्र
कोई कला ही न सीखें वरन उसकी हर अदा प्रेरणादायी हो, उसका हर व्यवहार अनुकरणीय हो.
उसकी वृत्ति, चरित्र, स्वभाव, रीतिनीति, व्यवहार, बातें, भाषा, पहिनावा, चालढाल, उठना-बैठना,
हावभाव, भोजन, घरद्वार, व्यवसाय सभी कुछ.
ऐसे उक्त गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव उचित ही है और आवश्यक भी.
(शिक्षक दिवस 5 सितम्बर 2015 के अवसर पर दिए गए भाषण
का अंश)
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यह क्रम जारी रहेगा.
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
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उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.
- घोषणा
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.
यह क्रम जारी रहेगा.
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