original,
mumbai, 26 apr 2006, 8.45 am
निर्ग्रन्थ पूजन –
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
निजातम
में जो रमते हें, सदा चिंतन जो करते हें
जगत
का त्यागकर फेरा, सदा निज में विचरते हें
अरे!
शिवपन्थ के राही, अरे! जिनदेव के नन्दन
मेरे
जीवन में आजाओ, तुम्हें वन्दन तुम्हें वन्दन
अरे!निर्मल स्वयं हो तुम, विमल विरहित विकारों से
तुम्हें क्या नीर दे पाए, अरे! शुचिता विकारों से
स्वयं
शुचि, शौच के धारी, अरे! जिनदेव के नन्दन
तुमें
ना नीर से नाता, तुम्हें वन्दन तुम्हें
वन्दन
कहाँ आताप शीतलता, ये कर्कषता ये कोमलता
ये गुण-पर्याय पुद्गल के, तुम्हें इनसे नहीं नाता
अरे!
अश्पर्श्य तुम मौनी, अरे! जिनदेव के नन्दन
स्वयं
चन्दन से शीतल तुम, तुमें वंदन तुम्हें वंदन
अहा:!अक्षत स्वयं हो तुम,ध्रुव निजरूप चिन्न्तन से
निराला वन्यजीवन ये, कहाँ कुछ चाहिए किससे
अरे!
शाश्वत अरे! अक्षत, अरे! जिनदेव के नन्दन
कभी तुम ना हुए विक्षत, तुम्हें वंदन तुम्हें वंदन
अरे! यह पुष्प माध्यम है, अन्य सबको लुभाने को
प्रयोजन
ना तुम्हें कोई , किसीको भी बुलाने
को
निरर्थक पुष्प से पूजन, अरे! जिनदेव के नन्दन
मेरे
इन भाव सुमनों से,
तुम्हें वंदन तुम्हें वंदन
अरे!
नैवैध्य ये जगका, स्वयं तल्लीन खुद में है
मेरा
वैभव रहे मुझमें , न इसकी चाह तुममें है
किसी
से कुछ नहीं चाहें, अरे! जिनदेव के नन्दन
स्वयं
परिपूर्ण निजमें तुम,तुम्हें वंदन तुम्हें वंदन
कहो
क्या दीपये जगका,प्रकाशित आत्मको करता
स्वयं
यह सूर्य है आतम, तम जो लोक के हरता
प्रकाशक
निज और परके तुम,अरे जिनदेवके नन्दन
अरे!
शिवपंथ के दिनकर, तुम्हें वंदन तुम्हें वंदन
कहो
कब धूप ये अबतक, किसी के बिध जला पाई
द्रष्टि
निज आत्म पर केन्द्रित, परमातम दशा पाई
तुम्हीं
हो साध्य-साधक तुम, अरे जिनदेवके नन्दन
अरे!
हो उर्ध्वगामी तुम , तुम्हें वंदन तुम्हें वंदन
सभी
फल लोक के निष्फल, हुए आनन्द लाने में
अरे!
निरपेक्षता सबसे , जरूरी मोक्ष पाने में
हुए
तुम आत्मसन्मुख तुम,अरे जिनदेवके नन्दन
हुए
निष्काम प्रतिफल से, तुम्हें वंदन तुहें वंदन
नहीं
लाया अरघ कोई, गुरुवार को रिझाने को
अरे
ना यह जरूरी है, तुम्हारा रूप पाने को
जगत
का रूप ठुकराया, अरे! जिनदेव के नन्दन
पडा
यह लोक चरणों में , तुम्हें वंदन तुम्हें वंदन
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