Saturday, October 15, 2011

स्वयं अपना जीवन शिल्पी बनने हेतु विचारणीय बिन्दु - जीवन की दिशा चुनते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? अपनी एक छोटी सी आवश्यकता की पूर्ति के लिए भला सारी दुनिया की विक्रतियों को ढोने की क्या आवश्यकता है?

इसी पत्र से - 
"ऐसी डिग्रियां जोकि हमें प्रोफेसनल बनाती हें वे भी हमारा आधा जीवन तो अभ्यास में ही झोंक डालती हें व शेष जीवन भी हमारा सम्पूर्ण शारीरिक व मानसिक शोषण ही करती रहती हें. चाहे आप डाक्टर बन जाएँ या वकील, चार्टर्डअकाउन्टेंट या कोई अन्य प्रकार के कंसल्टेंट, सारे जीवन अन्यों की शारीरिक या मानसिक विक्रतियों से अपने आपको जोड़ना व उसी में डूबे रहना, यही एक नियति बन जाती है.
अपनी एक छोटी सी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सारी दुनिया की विक्रतियों को ढोने की क्या आवश्यकता  है?"

१६ साल के इकलौते बेटे ने दुनिया की अन्य कोई भी उच्च शिक्षा लेने का विकल्प छोड़कर धर्म-दर्शन की शिक्षा लेने के लिए बम्बई का अपना घर छोड़कर ५ बर्ष के लिए जयपुर जाने का निर्णय कर लिया, तब तीन बर्ष के बाद लिखा गया मेरा पत्र उसके नाम -
रविवार -२३ अप्रेल २००६ ,३.१२ बजे 

"कैसा हो ये जीवन"
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

अनेकांत !




जयपुर जाकर जैन दर्शन का अध्ययन करने का निर्णय तुम्हारे जीवन का अनुपम निर्णय है, इसके लिए अत्यंत दूरदर्शिता, साहस, निर्णय क्षमता, दृढ निश्चय, उच्च संस्कार, मंद कषाय एवं आत्म विश्वास की आवश्यकता थी और है.
तुमने १९ साल की इस छोटी सी उम्र में यह कर दिखाया है इसके लिए तुम अभिनंदनीय व् बधाई के पात्र हो.
मैं या कोई और तुम्हारा अभिनन्दन करे या ना करे, जीवन तुम्हारा अभिनन्दन करेगा. तुम्हें जीवन में सुख, शांति, आत्म गौरव, आत्म संयम, आत्मोत्थान व् आत्म कल्याण का मार्ग प्रदान करके.
यह तुम्हारा अपना निर्णय है और इसलिए इस अभिनन्दन के पात्र तुम्ही हो सिर्फ तुम, और कोई नहीं.
अल्पवय में लिए गए इस निर्णय में कुछ जिम्मेदारी मेरी भी बनती है, इसलिए जयपुर भेजने के पूर्व के कुछ बर्षों से लेकर आज तक, जब तुम्हें जयपुर गए लगभग ३ बर्ष बीत चुके हें, मैं स्वयं भी आत्म संतोष और गौरव के अहसास के साथ-साथ एक गहन चिंतन के दौर से गुजरा हूँ व् वह धारा अभी भी रुकी नहीं है, वदस्तूर चल ही रही है और तब तक चलती ही रहेगी जब तक इस निर्णय का सफल परिणाम सामने नहीं आ जाता.


तुम्हारे उक्त निर्णय के साथ मेरी सहमति के आधार निम्नलिखित विचार बिंदु हें -
१. यह जीवन बहुत छोटा है (१०० बर्ष कोई बहुत बड़ा काल नहीं होता है) व एक सात्विक, संस्कारी  शैली में जीवन जीने के लिए आर्थिक आवश्यकताएं अत्यंत सीमित हें अनंत नहीं.

२. अपनी वर्तमान भूमिका के अनुरूप अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त संसाधन जुटाना अपने जैसी क्षमता, योग्यता और हैसियत वाले लोगों के लिए न तो मुश्किल है और न ही पूर्ण कालिक काम. इसके लिए हमें अपने आपको पूरी तरह झोंक देने की आवश्यकता नहीं है वरन बहुत थोड़े प्रयत्न व बहुत थोड़े समय के वलिदान से हम न्याय, नीति और गौरव के साथ अपना निर्वाह कर सकते हें.

३. आमतौर पर सर्विस में प्राप्तव्य की तुलना में समर्पण बहुत अधिक हुआ करता है क्योंकि हमें अपने पुरुषार्थ, परिश्रम व योग्यता से सिर्फ अपने लिए ही नहीं वरन अपने एम्प्लोयर के लिए भी कमाना होता है. इसके अलावा हमें एम्प्लोयर की इक्षा और आवश्यकता के अनुरूप अपने आपको ढालना भी पड़ता है, व्यवहार करना पड़ता है, उसके  निर्देशों का पालन करना होता है जो कि अक्सर हमारी अपनी आशाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं का गला घोंटती है, इसलिए जॉब करना मुझे मंजूर नहीं है.
सामान्यत: जॉब के लिए स्थान परिवर्तन की भी आवश्यकता होती है जो घर-परिवार को बिखेर देती है.

४. लौकिक शिक्षा की अधिकतर डिग्रियां हमें जॉब की ओर  ही उन्मुख करतीं हें, यदि हमें जॉब नहीं करना है तो ऐसी डिग्रियां हमारे लिए महत्वहीन व् निरर्थक हो जाती हें.

५. ऐसी डिग्रियां जोकि हमें प्रोफेसनल बनाती हें वे भी हमारा आधा जीवन तो अभ्यास में ही झोंक डालती हें व शेष जीवन भी हमारा सम्पूर्ण शारीरिक व मानसिक शोषण ही करती रहती हें. चाहे आप डाक्टर बन जाएँ या वकील, चार्टर्डअकाउन्टेंट या कोई अन्य प्रकार के कंसल्टेंट, सारे जीवन अन्यों की शारीरिक या मानसिक विक्रतियों से अपने आपको जोड़ना व उसी में डूबे रहना, यही एक नियति बन जाती है.
अपनी एक छोटी सी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सारी दुनिया की विक्रतियों को ढोने की क्या आवश्यकता है?
आप कह सकते हें की थोड़ा नहीं, बहुत कुछ मिलता है डाक्टरों को या वकील को या --------
पर भाई! बहुत की तो हमें आवश्यकता ही नहीं है न! उसका तो हमारे पास उपयोग ही नहीं है, तब क्यों हम अपने उपयोग को इसमें खराब करें?

६. एक सीमा तक  तो व्यापार की उन्नति व उससे होने वाली प्राप्ति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होती है, यहाँ तक तो ठीक है, पर एक सीमा के बाद व्यापार की उन्नति स्वयं नई-नई आवश्यकताएं पैदा करने लगती है; स्थान की, सहायकों (स्टाफ) की, पूंजी की, समय की, समर्पण की, बाजार की, प्रशासन की, कानूनी खानापूर्ति की और वादविवाद एवं उनके निपटारे की.
उक्त आवश्यकताएं तो कमाने के लिए हें फिर कमाई संभालने के लिए एक अलग प्रोजेक्ट?
यानीकि एक अंतहीन सिलसिला है और वह भी निरर्थक, फॉर नथिंग.

७. यदि जगत में महात्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए हम यह सब करें भी तो क्या हम उसमें सफल हो पाते हें?
हमारी किसी भी महानतम उपलब्धि का आखिर जगत की द्रष्टि में क्या मूल्य है? क्षेत्र, काल व भाव की द्रष्टि से विचार करें -
लोकाकाश में हमारा स्थन क्या है?
इसमें कितने जिनेन्द्र, इन्द्र व नरेन्द्र विद्यमान हें, उनके सामने हम क्या हें?
छोड़िये लोककाश, छोड़िये मध्यलोक. भरतक्षेत्र और आज की इस प्रथ्वी के पांच अरब लोगों के बीच आपकी क्या हैसियत रहने वाली है, भले ही आप कुछ भी क्यों न उपलब्ध करलें.

यदि चक्रवर्ती भी बन गए तो कितने काल तक के लिए?
यदि किसी एक बिषय के सर्वोच्च ज्ञाता बन भी गए तो अन्य अनेकों बिषय हें और उनके विशिष्ट ज्ञाता विद्वान मौजूद हें, इतने सबके बीच में आपकी क्या गिनती?
अरे! देश का राजा या राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री भी जब राष्ट्राध्यक्षों के सम्मलेन में भाग लेने जाते हें तो वहां हजार-पांचसौ अपने जैसे ही लोगों की भरी भीड़ में एक होते है; और कोई तो उस मीटिंगहाल की अंतिम लाइन की कोने बाली सीट पर बैठेगा ही न? तब क्या कीमत रही उसकी?
जगत का तो यह स्वरूप है, यहाँ तो आप भरी भीड़ में एक अकेले हें, अनेकों में एक. 

यहाँ एक तथ्य विचारणीय है -
तुम्हारे इस निर्णय और मेरे इन विचारों से अन्य लोग भी सहमत हों यह जरूरी नहीं है, वल्कि यह निश्चित है क़ि सभी लोग सहमत होंगे ही नहीं. 
सभीका तो सबाल ही क्या है, बहुतायत लोग हमसे असहमत ही रहेंगे.
सभी लोग तो तीर्थंकरों से भी सहमत नहीं हुए हें न?
अरे! जो लोग उनसे सहमत दिखते हें वे भी कहाँ उनके मार्ग को समझे हें या समझ कर सहमत हुए हें?
अरे भाई! तीन लोक से ६ महीने व ८ समय में ६०८ जीव मोक्ष जाते हें, सम्यक्त्व पाते हें और निगोद से निकालते हें, तब इससे ज्यादा एक भी जीव कैसे तीर्थंकरों से सहमत होगा?
जाने दो धर्म की बात, लोक में भी कहाँ सब लोग एक दूसरे से सहमत हें? यदि सभी लोग एकसा सोचते तो सभी लोग एकसे ही बन जाते न? सभी डाक्टर बनजाते या इंजीनियर या राजनीतिज्ञ या कुछ और, पर सब अलग-अलग मार्ग पर क्यों जाते?
यहाँ हरएक के पास अपने चुनाव के लिए तर्क भी होंगे ही.
इसलिए यदि तुम आश्वस्त हो क़ि तुम्हारा निर्णय सही है तो फिर दूसरे क्या सोचते और कहते हें इसकी परवाह करने की कतई आवश्यकता नहीं है.
अरे! दो लोग एक सा भोजन नहीं करते, कपडे नहीं पहिनते, बाल नहीं बनाते तो जीवन के बारे में एकसा कैसे सोचेंगे?
यह भी सत्य है क़ि छोटे बालों वाला बड़े बाल बालों को हिराकत की नजर से देखेगा और बड़े बालों वाला छोटे बाल वाले की मसखरी करेगा पर कौन किसकी परवाह करता है?
तब हम ही क्यों सभी की परवाह करें?
योगी भोगी को हीन , हेय और वेचारा समझता है और भोगी योगी को भोला या मूर्ख समझता है.
हम किसी भी मार्ग पर क्यों न चलें, कैसे भी, कुछ भी क्यों न बनें, टीका टिप्पणी तो होगी ही, उससे तो बचा नहीं जा सकता है, उसकी आकुलता से बचने का तो एक ही उपाय है क़ि हम उस पर ध्यान ही न दें, हम इसे वस्तु का स्वरूप मानकर स्वीकार करलें.
अरे! जो लोग स्वयं अपनी चाहत, निर्णय, व प्रयत्न से जो भी बन गए हें, उसी में कहाँ संतुष्ट हें. हर डाक्टर के अन्दर किसी कोने में इंजीनियर, संगीतकार, चित्रकार या क्रिकेटर और राजनीतिज्ञ छुपा बैठा है. डाक्टरपना तो उसका उभरकर सामने आ गया है बाकी सब व्यक्तित्व दमित रह गए हें. इसी प्रकार एक चित्रकार के जेहन में कहाँ एक पत्रकार छुपा बैठा है यह हमें -तुम्हें मालूम नहीं पड़ता है.
सभी एक दूसरे की ओर जीवन भर ललचाई, हसरत भरी निगाहों से देखते रहते हें, कोई भी अपने आप में १०० प्रतिशत कुछ भी नहीं है, न चित्रकार न पत्रकार, हरेक के अन्दर सब कुछ है, फर्क सिर्फ इतना है क़ि एक व्यक्ति के अन्दर डाक्टर जाग उठा है और कलाकार व वकील सो रहा है, अन्य में वकील जाग उठा है और अन्य सब विधाएं सोरहीं हें.
कोई अपने आप में १०० प्रतिशत संतुष्ट नहीं हें.
जब वह स्वयं संतुष्ट व सहमत नहीं हें तो हम कैसे उनकी बातों में आ जाएँ?
हो नहो जो आज तुमसे कह रहा हो क़ि यह क्या किया अनेकांत! वही अन्दर ही अन्दर घुट रहा हो क़ि मैंने भी ऐसा ही क्यों नहीं किया. मैं ऐसा क्यों नहीं कर सकता था, काश मैंने भी यह़ी किया होता?
पर ऐसा कुछ करने के लिए साहस चाहिए  दूरदर्शिता चाहिए.
लीक छोड़कर चलना हरेक के वश की बात नहीं होती.
"लीक छोड़ तीनों चलें, शायर, सिंह,सपूत "
आज वे लोग सोचते होंगे क़ि शायद यह़ी मार्ग सही हो, लगता तो यह़ी सही है, इसमें गलत तो कुछ दिखाई देता नहीं, इसमें खोने को तो कुछ है नहीं, सिर्फ पाना ही पाना तो है.
पर कल वे देखेंगे, कहेंगे -
"अनेकांत ! तुम्हारा निर्णय सही था, तुम्हारा मार्ग सही है, तुम भाग्यशाली हो."
अब मात्र दो साल बचे हें, तब तुम एक क्वालीफाइड विद्वान बनकर आ जाओगे, जीवन के पहिले पड़ाव पर पहुँच जाओगे, जीवन का एक दौर पूरा होगा. 
एक ब़ार फिर एक विचारणीय बिंदु सामने होगा -
अब आगे क्या?
तुम्हारे वर्तमान निर्णय को इतना महिमामंडित करने का आशय यह नहीं है क़ि अब तुम्हारे पास अन्य कोई विकल्प है ही नहीं या नहीं होना चाहिए.
अपनी वर्तमान भूमिका के अनुरूप तुम्हारी अन्य महत्वाकांक्षाएं भी वलवती होउठें यह अस्वाभाविक नहीं है.
मोटे तौर पर तीन विकल्प तुम्हारे सामने उभरते हें -
१- further higher studies .
2. व्यापार की ट्रेनिंग लेकर व्यापार करना
३. आत्म कल्याण व तत्वप्रचार की सामाजिक गतिविधियाँ 

- तुम चाहो तो  MBA कर सकते हो जिससे एक तो सहज ही तुम्हारी योग्यता को लोक की मान्यता मिलेगी और तुम्हारे अन्दर उस वैज्ञानिक व्यवस्थाशक्ति का विकास होगा, जो क़ि आगामी जीवन के हर क्षेत्र में तुम्हें मददगार होगी.
- वर्तमान भूमिका में यह उचित ही है क़ि हम स्वयं अपने जीवन यापन के योग्य द्रव्य का अर्जन करें और आर्थिक-सामाजिक तौर पर स्वाबलंबी बनें, तदर्थ व्यापार की शिक्षा लेकर व्यापार प्रारम्भ किया जाबे.
- अपने उपलब्ध साधनों से ही अपनी आजीविका का परमानेंट इंतजाम करके अपने आप को दादा के मार्ग पर ही लगा दिया जाबे. 
परमार्थ के मार्ग की ठोस आधारशिला तैयार जाने के बाद पहिला विकल्प भी उचित ही है.
तुमने जिसप्रकार पांच बर्ष तक सम्पूर्ण समर्पण के साथ यह साधना पूर्ण की है उसी प्रकार २-५ बर्ष व्यापार की ठोस आधारशिला तैयार करके अपनेआपको ठोस आर्थिक धरातल पर लेआना भी उचित ही है इसलिए दूसरा विकल्प भी श्रेष्ठ ही है और तीसरे विकल्प की तो बात ही क्या?
अस्तु -

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

नोट - अनेकांत ने सन २००८ में अपनी शास्त्री की शिक्षा पूरी की, उसके बाद बम्बई में  S.P. Jain Institute of Management से FMB करने के बाद Gemological Institute  of americaसे Graduate Gemologist की उपाधि प्राप्त करके रत्नों के ज्ञाता बनने के बाद अब परिवार के रत्न व्यवसाय में जुड़ गया है.
वह लोकप्रिय आध्यात्मिक प्रवक्ता तो है ही और इन गतिविधियों में सक्रिय रूप से संलग्न है.

2 comments:

  1. अंतर्मन की आवाज को सुनना चाहिए और उसी राह पर चलना चाहिए जिससे हमे संतोष की प्राप्ति हो ......आपने बड़े ही सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है और पत्र द्वारा अच्छा मार्गदर्शन किया है ...बहुत से नवजवान सही दिशा की तलाश में भटक रहें हैं देखा-देखी रस्ते अपना रहे हैं किन्तु संतुष्ट नहीं हो पा रहे हैं अवसाद ग्रस्त हैं ...उनका भी मार्गदर्शन कीजिये .....धन्यवाद |

    ReplyDelete