Saturday, December 17, 2011

एक दिन तो यह होना ही था (कहानी)


एक दिन तो यह होना ही था 
(कहानी)

सुना तुमने !
मैं कहता नहीं था , एक दिन तो ये होना ही था . 
आखिर कितने दिन तक चल सकता है ये सब , ताश के महल टिकते थोड़ी हें , हवा का एक झोंका आया और --------------
चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात .
पता नहीं लोग ऐसा करते क्यों हें , आखिर क्या मिलता है इससे ?
न चैन न शुकून , न नाम न यश .
बस थोड़े दिन की जाहो जलाली , थोड़े दिन की वाह वाह ; पर अब क्या ? 
सारी दुनिया थू थू कर रही है .
कल तक जो लोग आगे पीछे घूमते थे वही आज पीछे पड़े हें , कोई गालियाँ बक रहा है , कोई मरने मारने पर उतारू है .
तब समझ में नहीं आती थी , तब तो बस अंधे हुए जा रहे थे , तब तो बस वो ही वो दिखाई देता था , दूसरे तो सब मूरख लगते थे , अब मालूम पडा मूरख कौन था , तुम या हम .
पर एक बात है , शराफत का ज़माना ही नहीं है , इमानदार आदमी तो ज़िंदा ही नहीं रह सकता है .
चोर - लुटेरे मौज करते हें , दुनिया को लूटते हें और दुनिया उन्हीं के गुणगान करती है , उन्हीं के तलुए चांटती है .
शरीफ और इमानदार लोग तो बस मूर्ख और फिसड्डी दिखाई देते हें .
पर एक न एक दिन तो हकीकत सामने आ ही जाती है न .
पर इससे भी क्या होता है , एक दिन थोड़ा सहम - ठिठक जायेंगे फिर वही ढ़ाक के तीन पात , आज तक इसके पीछे दौड़ते थे कल से किसी और के पीछे दौड़ेंगे , आज तक ये भगवान बने हुए थे , कल कोई दूसरा मिल जाएगा .
मैं यह़ी तो कहूं क़ि आखिर ऐसा कौन सा जादू है क़ि वो दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही जा रहा है , अरे हम भी दिन रात लगे ही तो रहते हें पर क्या कर पाते हें ? वही ढ़ाक के तीन पात .
पर जिसे घोटाला ही करना हो उसे क्या ?
ये कैसी त्रासदी है , एक आदमी जो घोटालेबाज है वह भी बाजार में ८-१० बर्ष तो टिक ही जाता है क्योंकि एक साथ ही तो सब कुछ नष्ट हो नहीं जाता है , वह तो धीरे - धीरे नुकसान करते करते ८-१० बर्ष में  इस स्थिति तक पहुंचता है क़ि उसे दिवालिया घोषित होना पड़े , पर इस बीच वह बर्षों तक उन लोगों को अपने सामने बाजार में टिकने नहीं देता है जो सही मायनों में व्यापार करके सीधे सादे ढंग से अपना जीवन यापन करना चाहते हें क्योंकि वह सबसे ज्यादा कीमत पर माल खरीदता है और कोई उसके सामने माल ले ही नहीं पाता है और फिर वह इतने कम भाव पर माल बेच भी देता है क़ि कोई बेच ही ना पाए .
उक्त हालात में होता यह है क़ि वह तो लगातार नुकसान करता रहता है और प्रतिपल बर्बादी की ओर बढ़ता जाता है , दूसरी ओर दूसरे लोग बाबजूद कड़ी मेहनत और पूरी होशियारी के कुछ भी नहीं कर पाते .
यह क्रम कभी बंद नहीं होता है , लगातार चलता ही रहता है , सिर्फ मोहरे बदल जाते हें , एक जाता है तो दूसरा आजाता है , ऐसे में आखिर सीधा सादा आदमी काम कैसे करे ?
व्यापार मैं जैसे जैसे घाटा बढ़ता जाता है तब बाजार की उधारी चुकाने में दिक्कतें आने लगतीं हें , दरबाजे पर सदा ही मागने बालों की भीड़ लगने लगती है और तब ये निरंतर फायनेंस जुटाने में ई व्यस्त रहने लगता है .
अब प्राथमिकताएं बदल जातीं हें , अब कमाने के लिए दौड़ने की जगह पैसा जुटाने के लिए दौड़ने लगता है .
इस तरह पहिले जो efforts productive हुआ करते थे अब nonproductive efforts में उलझ जाता है , पहिले जो व्यापार में मेहनत करता था तो उससे नया पैसा पैदा होता था जो सदा उसके पास रहने बाला था , आज उधार लेकर जो पैसा जुटाता है वह तो कल लौटाना ही है ऊपर से व्याज और चुकाना होगा .
आज जो माल लिया था उसका पेमेंट चुकाने के लिए पैसे जुटा रहा है लोन ले रहा है  , कल लोन चुकाने के लिए लोन लेने को निकलेगा , इस तरह यह दुष्चक्र आखिर कब रुकेगा , यह तो अनन्त है .सारी निष्ठाएं ही बदल गईं , जीवन का लक्ष्य ही बदल गया . अब तू व्यापारी कहाँ रहा ? अब तो तू फायनेंस मेनेजर हो गया है , अब कमाएगा कौन और कब ?
अब यदि व्यापार भी करता है तो कमाने के लिए नहीं , फायनेंस मेनेज करने के लिए .
अब पहिले से ज्यादा माल खरीदने लगता है पर ज्यादा कमाने या व्यापार बढाने के लिए नहीं वल्कि फायनेंस जुटाने के लिए क्योंकि माल कुछ दिन की उधारी पर मिल जाता है जिसे बेचकर पुराना पेमेंट चुकाया जा सके .
अब माल उधारी पर मिलता तो है पर थोड़ा महंगा क्योंकि बेचने वाला भी जानने लगा है क़ि पैसा देर से मिलेगा और वह भी कई चक्कर लगाने के बाद ,इसलिए वह इन प्रयासों की फीस अडवांस में ही बसूल लेना चाहता है .
अब माल बिकता भी थोड़ी कम कीमत पर है क्योंकि है बेचने की गरज देखकर ग्राहक कम से कम दाम में माल लेना चाहता है .
अब माल महंगा लेकर सस्ता बेचने के कारण निरंतर घाटा बढ़ने लगता है .
दूर से देखने वालों को लगता है क़ि व्यापार दिन दूना और रात चौगुना बढ़ रहा है , भीड़ लगी रहती है माल ज्यादा आता और जाता है , स्टाफ बढता जा रहा है  , दूकान बड़ी होती जा रही है तो बे दूर से देखने बाले लोग उसकी तरक्की की प्रसंशा करते नहीं थकते हें . 
बे लोग जो उसी व्यापार में हें और अपनी रफ्तार से ही चल पा रहे हें , हालाँकि सब कुछ जानते - समझते हें पर फिर भी या तो चुप रहते हें या फिर उन्हीं  अन्य  लोगों की हाँ में हाँ मिलाने पर मजबूर हें क्योंकि अन्यथा इर्ष्यालू कहलाने का डर रहता है .
कहने को व्यापार बढ़ता जाता है पर सचमुच तो घाटा बढ़ता जाता है , पहिले लोग इनके पास अपना पैसा जमा कराने के लिए आते थे अब ये लोगों के पास लोन लेने के लिए जाते हें . 
पहिले दुकान पर ग्राहकों की भीड़ हुआ करती थी अब साहूकारों और लेनदारों  की भीड़ रहती है .
एक दिन भीड़ इतनी बढ़ने लगती है क़ि अब उसका अपनी ही दुकान पर बैठना भी संभव नहीं रहता है ,और अब लेनदार लोग उसकी दुकान पर बैठते हें और वह कहीं और .
ऐसे में आप जान सकते हें क्या होता होगा .
पहिले धंधा दिन में मात्र दुकान पर चलता था और घर आजाने के बाद आराम रहता था , अब बे लोग जो दिन में दुकान पर सम्पर्क नहीं कर पाते हें वे या उनके फोन रात को घर पर आने लगते हें , परिवार और मोहल्ले के लोग समझते हें क़ि व्यापार अब बढ़ रहा है .
अब वह जहान से निकलता है दो चार लोग उसके साथ होलेते हें , देखने वाले समझते हें क़ि बड़ा आदमी बन गया है , लोग उससे बात करने के लिए और उसका जबाब सुनने के लिए चातक की भांति मुह बाए खड़े रहते हें देखने वालों को लगता है वाह इनकी कितनी चाहत है .
मांगने वाले लोग अब थोड़े ज्यादा ही विनम्र हो गए हें क्योंकि चाहते हें क़ि सेठजी खुश होकर औरों से पहिले उन्हें पैसे दे दें, साथ ही उन्हें डर भी रहता है क़ि यदि सेठजी नाराज हो गए तो --- , और देखने वालों को लगता है क़ि लोग उनकी कितनी इज्जत , लिहाज और सन्मान करते हें .
अब कभी कभी सेठजी गर्म भी होने लगे हें पर जैसे ही वे थोड़ा ही ऊँचे स्वर में बोलते हें आसपास के लोग सहम कर चुप होजाते हें , फिर चाहे वे कोई भी तुर्रमखां क्यों न हों और देखने वाले लोगों पर प्रभाव पड़ता है क़ि सेठजी का रूतबा कितना है , उनके सामने तो अच्छे अच्छों की बोलती बंद हो जाती है .
अब कभी कभी सेठजी अपने सिद्धांत भी बघारने लगे हें , किसी अन्य के प्रवचन लोग सुनें या न सुनें पर उनकी बातें बड़े धैर्य के साथ सुनते हें तो दूर से देखने वालों को लगता है क़ि लोगों को सेठजी के प्रति श्रद्धा भी बहुत है .
जब सेठजी तनिक गुस्से में लोगों से कहते हें क़ि  " ठीक है कभी किसी का समय पर नहीं दे पाया पर किसी लेकर भागा भी नहीं हूँ , जब होगा तब दूंगा , नहीं होगा तो कहाँ से लाऊंगा , मैं सिद्धांत से चलता हूँ , जिसका पहिले लिया है उसका पहिले दूंगा, अभी तुम्हारा नंबर दूर है तुम चुप रहो " तो लोग समः कर चुप रह जाते हें और देखने सुनने वालों को लगता है क़ि सेठजी सही और सिद्धान्तबादी हें इसीलिये तो भरे बाजार इतना जोर से बोल सकते हें ,और फिर अगर ये लोग सही होते और सेठजी गलत तो सब चुप क्यों रह जाते ?
भीड़ के अपने तर्क होते हें , अपनी मानसिकता होती है और भीड़ उन्हीं के अनुसार चलती है , भीड़ की मानसिकता को जो समझ जाता है वह नेता बन जाता है . भीड़ को रिझाने के लिए यह जरूरी नहीं क़ि आप सही हों या बेहतर हों यह इस बात पर निर्भर करता है क़ि आपका प्रस्तुतीकरण कैसा है .
भीड़ यह कभी नहीं जान पाती क़ि आप कैसे हें , उसका निर्णय तो इस बात पर निर्भर करता है क़ि आप कैसे दिखाई देते हें . 
भीड़ आवेग से नियंत्रित होती है , उसके सामने तर्क बेमानी होते हें और तथ्य भोंथरे .
एक ओर कथित तौर से व्यापार बढ़ रहा था तो साथ ही साथ लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ रही थीं , मन भी बढ़ रहे थे .
परिवार वालों को अब बड़ा घर चाहिए था ,बड़ी कार चाहिए थी , महंगे कपडे और जेवरात चाहिए थे . उन्हें देश और विदेश घूमना था , बड़ी बड़ी पार्टियां करनी थी , लोगों को  oblige एवं प्रभावित  करना था.
त्योहारों और शादी विवाह के प्रसंगों पर बहिन बेटियों और रिश्तेदारों की अपेक्षाएं बड गई थीं .
समाज भी उसकी ओर आशा भरी निहाहों से देखने लगा था.
चन्दा और भीख मांगने वालों को भी अब कुछ कम से संतोष नहीं होती था . दोष उनका भी नहीं था , खुद उसने ही तो पहिले अपना नाम बड़ा करने के लिए आगे आगे बडचढ़कर ज्यादा ज्यादा देना शुरू किया था .
अब सरकार को टैक्स ज्यादा चाहिए था और अफसरों को ज्यादा रिश्वत .
दुकानदारों को ज्यादा दाम चाहिये था और मजदूरों और कमचारियों को ज्यादा मजदूरी और तनख्वाह .
अब वह ज्यादा खर्च करके उदार तो नहीं कहलाता था पर उच्च कमी दिखने पर कंजूस अवश्य दिखने लगा था .
अब लोग उससे कितना भी पा लेते पर संतुष्ट नहीं होते , किसी न किसी कमी की कोई न कोई कसक उनके मन में बनी ही रहती .
घर पर भी लोगों के नजरिये और बातों में परिवर्तन साफ नजर आने लगा था .
पत्नी कहती क़ि तुमने इतना कमा लिया पर मुझे क्या मिला ? सारे गाँव को बांटा पर तुमने मुझे क्या दिया ? मेरे हिस्से तो बस वहीं मेहमानों की मेजवानी और खातिरदारी ही आई , दिन देखो न रात बस लगे रहो . दिन भर घर में जुटे रहो और शाम को माडेल बनकर पार्टियों में जाओ झूंठा रूतबा और आबरू बढाने के लिए , मन हो या न हो , श्रृंगार करो , महंगे कपडे पहिनों , तन पर गहनों को सजाओ और शो पीस बनकर चाहे अनचाहे लोगों को देखकर मुस्कुराओ .
बच्चे कहते क़ि पापा ये क्या बिजनेस-बिजनेस दिनरात ? अरे लाइफ भी तो एन्जॉय करनी चाहिए और ये क्या सादा सी घड़ी और चश्मा , आपको तो डिजायनर कपडे , limited addition wathch और सोने की फ्रेम का चश्मा पहिनना चाहिए .
और न जाने क्या क्या .
खर्चे बढ़ते रहे , कर्जे बढ़ते रहे और वह अन्दर ही अन्दर से टूटता रहा .
आखिर जो होना था वही हुआ .
और आज वह चौराहे पर खडा है .
" bankrupt "

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