Monday, June 25, 2012

हम सभी स्वभाव से ही बहुरूपिये हें . कोई अपने असली रूप में रहना ही नहीं चाहता है , रहता ही नहीं है . शायद किसी को भी अपना असली रूप पसंद ही नहीं है .

यह जगत की प्रणाली भी विचित्र है .

हम सभी स्वभाव से ही बहुरूपिये हें .

कोई अपने असली रूप में रहना ही नहीं चाहता है , रहता ही नहीं है .

शायद किसी को भी अपना असली रूप पसंद ही नहीं है .

यदि यह़ी सही है तो क्या मजबूरी है ?

हम अपने आप को बदल भी तो सकते हें और वैसे ही बन सकते हें जो हमें पसंद है , हम जैसा दिखना चाहते हें .

पर दरअसल बात यह है क़ि हम बैसे बनना नहीं चाहते हें जैसे हम दिखना चाहते हें यह़ी हमारा बहुरूपियापन है .

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