यह जगत की प्रणाली भी विचित्र है .
हम सभी स्वभाव से ही बहुरूपिये हें .
कोई अपने असली रूप में रहना ही नहीं चाहता है , रहता ही नहीं है .
शायद किसी को भी अपना असली रूप पसंद ही नहीं है .
यदि यह़ी सही है तो क्या मजबूरी है ?
हम अपने आप को बदल भी तो सकते हें और वैसे ही बन सकते हें जो हमें पसंद है , हम जैसा दिखना चाहते हें .
पर दरअसल बात यह है क़ि हम बैसे बनना नहीं चाहते हें जैसे हम दिखना चाहते हें यह़ी हमारा बहुरूपियापन है .
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