हे भव्य आत्मार्थी !
इस कलिकाल में वीतरागी, सर्वज्ञ का तो विरह है .
सम्यग्द्रष्टि ज्ञानी का भी संयोग हो या न हो या संभव है संयोग होकर फिर विरह हो जाबे .
यदि अब आज सम्यग्द्रष्टि का संयोग मुझे नहीं है तब वियोग की अपेक्षा तो सम्यग्द्रष्टि और केवली दोनों ही मेरे लिए समान हुए , तब सम्यग्द्रष्टि की क्या आश करूं ,केवली की क्यों नहीं ?वियोग तो वियोग है , पल भर पूर्व हुआ हो या अनंतकाल पूर्व .
अब यदि अभी संयोग दोनों का ही नहीं है और वाणी दोनों की ही हमारे पास विद्यमान है तो हमारे लिए तो दोनों ही समान ही है न ?
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सम्यग्द्रष्टि ज्ञानी का भी संयोग हो या न हो या संभव है संयोग होकर फिर विरह हो जाबे .
यदि अब आज सम्यग्द्रष्टि का संयोग मुझे नहीं है तब वियोग की अपेक्षा तो सम्यग्द्रष्टि और केवली दोनों ही मेरे लिए समान हुए , तब सम्यग्द्रष्टि की क्या आश करूं ,केवली की क्यों नहीं ?वियोग तो वियोग है , पल भर पूर्व हुआ हो या अनंतकाल पूर्व .
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