हमें जीवन उसी तरह जीना चाहिए जैसे हम सिनेमा देखते हें .
हम सिनेमा देखते हें तो कहानी हमारे ज्ञान का ज्ञेय बनती है .
हम उसे जान तो लेते हें , उसमें जो चरित्र जैसा है बैसा जान लेते हें , जो घटनाएं जैसी घटी हें बैसी जान लेते हें पर सुखी - दुखी नहीं होते हें .
न तो सुखी - दुखी होते हें और न ही कुछ भी बदलने का प्रयास करते हें .
न तो दुखी और जरूरतमन्द आदमी की मदद करने के लिए दौड़ते हें और न ही किसी दुष्ट को दण्ड देने का विचार करते हें .
न तो लगी हुई आग को बुझाने का उपक्रम करते हें और न ही बरसात होने पर छाता खोलते हें .
बस सब कुछ जान लेते हें .
बस यह जीवन भी इसी तरह जीने के योग्य है .
जो कुछ हो रहा है उसे ज्ञान का ज्ञेय बना लें .
जो लोग जैसे हें वैसा जान लें , जो घटनाएं जैसी घटित हो रही हें उन्हें बैसी जान लें , बस जान लें , उन्हें अच्छा - बुरा न माने , उसमें सुखी - दुखी न हों .
न सिर्फ दुखी - सुखी न हों , वरन हम उन्हें बदलने का प्रयास भी न करें .
न तो हम किसी दुखी और कमजोर व्यक्ति की मदद कर सकते हें और न ही किसी दुष्ट और अपराधी को दण्डित ही कर सकते हें .
क्या कोई और भी ( कोई सर्वशक्तिमान , कोई ईश्वर ) ऐसा कर सकता है या नहीं यह बिषय प्रथक है पर कम से कम हम तो कुछ नहीं कर सकते हें .
आखिर ऐसा क्यों होता है ?
अपने जीवन में हम वैसे ही ज्ञाता - द्रष्टा (जानने और देखने वाले ) क्यों नहीं रह पाते हें जैसे हम सिनेमा देखने के समय रह पाते हें .
क्योंकि सिनेमा के बारे में हम यह बात बहुत अच्छी तरह से जानते हें क़ि इसमें " जो कुछ होना है वह निश्चित है , इसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं है " .
इसमें न तो मैं कोई परिवर्तन कर सकता है और न ही कोई अन्य ही , और तो और सिनेमा का निर्माता और निर्देशक भी अब तो ऐसा नहीं कर सकता है .
वास्तविक जीवन के बारे में ऐसा नहीं है , वास्तविक जीवन और इस दुनियाँ (श्रष्ठी) के बारे में हमारा द्रष्टिकोण विल्कुल ही अस्पष्ट है और हम इसके बारे में कभी गहराई से कोई विचार भी नहीं करते हें .
कुछ भी हो , इसका निर्णय तो हमें करना ही होगा , आखिर यह हमारे अपने हित की बात है , इसी निर्णय पर हमारा हित - अहित निर्भर है ,हमारा सब कुछ निर्भर है .
मेरा कहना है क़ि चाहे कोई ऐसा मानता हो क़ि " यह जगत अनादि - अनन्त , स्वनिर्मित है " या ऐसा मानता हो क़ि " किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर ने इसकी रचना की है और वही इसका संचालन भी करता है ", दोनों ही स्थितियों में हम जैसे साधारण लोगों के हाथ में तो कुछ भी नहीं रहता है न ?
या तो सब कुछ स्वयं संचालित रहेगा या सबका संचालन ईश्वर करेगा ,हम क्या कर सकते हें , शिवाय देखने और जानने के ?
तब हम क्यों विकल्प जाल में उलझें ?
हम क्यों किसी व्यक्ति या घटना को अच्छा-बुरा या सही-गलत जान और मानकर उसे बदलने के विकल्प में दुखी हों .
यदि हम गहराई से विचार करेंगे तो पायेंगे क़ि हम तो क्या , यदि कोई सर्वशक्तिमान शक्ति भी इस सब के पीछे हो तब भी कोई भी परिवर्तन करना उसके भी हाथ में नहीं है , यदि वह भी इस सब को बदलने का कोई प्रयास करे तो दुनिया में उथल -पुथल मच जाबे .
ऐसी स्थिति में क्यों नहीं हम दुनियादारी के बारे में भी वही रुख अपनाएँ जैसा एक सिनेमा के प्रति रखते हें .
अरे ! कुछ लोग तो ऐसे भी होते हें जो सिनेमा में बैठकर भी रोते हें , सब कुछ जानते और समझते हुए भी रोते हें ( अब जिनके भाग्य में ही रोना लिखा है उनका कोई क्या कर सकता है ) .इसी प्रकार कभी - कभी ज्ञानी जीवों को भी वर्तमान अवस्था में कमजोरी ( चारित्र मोह ) के कारण अच्छे - बुरे का विकल्प आता है या कुछ करने - धरने का भाव आ ही जाता है पर वह इतना घातक नहीं होता है क्योंकि उके पीछे उनका वस्तु स्वरूप की सच्ची समझ का वल है .
वर्तमान भूमिका में कमजोरी के कारण विकल्प भले ही आबें पर सच्ची समझ अत्यंत आवश्यक है , यदि सच्ची समझ है तो बड़ा खतरा नहीं है .
कभी कोई मधुमेह ( diabities ) का रोगी जिसे अपने रोग के बारे में सारे तथ्य अच्छी तरह मालूम हें , अपनी मन की कमजोरी के कारण थोड़ी मिठाई का सेवन कर भी ले तब भी वह घातक स्थिति तक नहीं पहुंचेगा .
यह हमारे हे हित में है क़ि हम सत्य को जाने , समझें , स्वीकार करें और तदनुसार आचरण करें , हमारा कल्याण होगा .
हम सिनेमा देखते हें तो कहानी हमारे ज्ञान का ज्ञेय बनती है .
हम उसे जान तो लेते हें , उसमें जो चरित्र जैसा है बैसा जान लेते हें , जो घटनाएं जैसी घटी हें बैसी जान लेते हें पर सुखी - दुखी नहीं होते हें .
न तो सुखी - दुखी होते हें और न ही कुछ भी बदलने का प्रयास करते हें .
न तो दुखी और जरूरतमन्द आदमी की मदद करने के लिए दौड़ते हें और न ही किसी दुष्ट को दण्ड देने का विचार करते हें .
न तो लगी हुई आग को बुझाने का उपक्रम करते हें और न ही बरसात होने पर छाता खोलते हें .
बस सब कुछ जान लेते हें .
बस यह जीवन भी इसी तरह जीने के योग्य है .
जो कुछ हो रहा है उसे ज्ञान का ज्ञेय बना लें .
जो लोग जैसे हें वैसा जान लें , जो घटनाएं जैसी घटित हो रही हें उन्हें बैसी जान लें , बस जान लें , उन्हें अच्छा - बुरा न माने , उसमें सुखी - दुखी न हों .
न सिर्फ दुखी - सुखी न हों , वरन हम उन्हें बदलने का प्रयास भी न करें .
न तो हम किसी दुखी और कमजोर व्यक्ति की मदद कर सकते हें और न ही किसी दुष्ट और अपराधी को दण्डित ही कर सकते हें .
क्या कोई और भी ( कोई सर्वशक्तिमान , कोई ईश्वर ) ऐसा कर सकता है या नहीं यह बिषय प्रथक है पर कम से कम हम तो कुछ नहीं कर सकते हें .
आखिर ऐसा क्यों होता है ?
अपने जीवन में हम वैसे ही ज्ञाता - द्रष्टा (जानने और देखने वाले ) क्यों नहीं रह पाते हें जैसे हम सिनेमा देखने के समय रह पाते हें .
क्योंकि सिनेमा के बारे में हम यह बात बहुत अच्छी तरह से जानते हें क़ि इसमें " जो कुछ होना है वह निश्चित है , इसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं है " .
इसमें न तो मैं कोई परिवर्तन कर सकता है और न ही कोई अन्य ही , और तो और सिनेमा का निर्माता और निर्देशक भी अब तो ऐसा नहीं कर सकता है .
वास्तविक जीवन के बारे में ऐसा नहीं है , वास्तविक जीवन और इस दुनियाँ (श्रष्ठी) के बारे में हमारा द्रष्टिकोण विल्कुल ही अस्पष्ट है और हम इसके बारे में कभी गहराई से कोई विचार भी नहीं करते हें .
कुछ भी हो , इसका निर्णय तो हमें करना ही होगा , आखिर यह हमारे अपने हित की बात है , इसी निर्णय पर हमारा हित - अहित निर्भर है ,हमारा सब कुछ निर्भर है .
मेरा कहना है क़ि चाहे कोई ऐसा मानता हो क़ि " यह जगत अनादि - अनन्त , स्वनिर्मित है " या ऐसा मानता हो क़ि " किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर ने इसकी रचना की है और वही इसका संचालन भी करता है ", दोनों ही स्थितियों में हम जैसे साधारण लोगों के हाथ में तो कुछ भी नहीं रहता है न ?
या तो सब कुछ स्वयं संचालित रहेगा या सबका संचालन ईश्वर करेगा ,हम क्या कर सकते हें , शिवाय देखने और जानने के ?
तब हम क्यों विकल्प जाल में उलझें ?
हम क्यों किसी व्यक्ति या घटना को अच्छा-बुरा या सही-गलत जान और मानकर उसे बदलने के विकल्प में दुखी हों .
यदि हम गहराई से विचार करेंगे तो पायेंगे क़ि हम तो क्या , यदि कोई सर्वशक्तिमान शक्ति भी इस सब के पीछे हो तब भी कोई भी परिवर्तन करना उसके भी हाथ में नहीं है , यदि वह भी इस सब को बदलने का कोई प्रयास करे तो दुनिया में उथल -पुथल मच जाबे .
ऐसी स्थिति में क्यों नहीं हम दुनियादारी के बारे में भी वही रुख अपनाएँ जैसा एक सिनेमा के प्रति रखते हें .
अरे ! कुछ लोग तो ऐसे भी होते हें जो सिनेमा में बैठकर भी रोते हें , सब कुछ जानते और समझते हुए भी रोते हें ( अब जिनके भाग्य में ही रोना लिखा है उनका कोई क्या कर सकता है ) .इसी प्रकार कभी - कभी ज्ञानी जीवों को भी वर्तमान अवस्था में कमजोरी ( चारित्र मोह ) के कारण अच्छे - बुरे का विकल्प आता है या कुछ करने - धरने का भाव आ ही जाता है पर वह इतना घातक नहीं होता है क्योंकि उके पीछे उनका वस्तु स्वरूप की सच्ची समझ का वल है .
वर्तमान भूमिका में कमजोरी के कारण विकल्प भले ही आबें पर सच्ची समझ अत्यंत आवश्यक है , यदि सच्ची समझ है तो बड़ा खतरा नहीं है .
कभी कोई मधुमेह ( diabities ) का रोगी जिसे अपने रोग के बारे में सारे तथ्य अच्छी तरह मालूम हें , अपनी मन की कमजोरी के कारण थोड़ी मिठाई का सेवन कर भी ले तब भी वह घातक स्थिति तक नहीं पहुंचेगा .
यह हमारे हे हित में है क़ि हम सत्य को जाने , समझें , स्वीकार करें और तदनुसार आचरण करें , हमारा कल्याण होगा .
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