Tuesday, July 17, 2012

बस बस ! बहुत हुआ . अब ठहर जा सयाने ! खुद बड़ा उदारदिल बना फिरता है और हमें सकीर्ण और स्वार्थी बतलाता है ? अपने अन्दर झांक कर देख ! तेरी स्वयं की वृत्ति कैसी है . बातें तो " बसुधैव कुतुम्बिकम " की करता है और अंतर्मन में निरंतर अपना ही ध्यान चलता है .

बस बस ! बहुत हुआ .
अब ठहर जा सयाने !
खुद बड़ा उदारदिल बना फिरता है और हमें सकीर्ण और स्वार्थी बतलाता है ?
अपने अन्दर झांक कर देख !
तेरी स्वयं की वृत्ति कैसी है .
बातें तो " बसुधैव कुतुम्बिकम " की करता है और अंतर्मन में निरंतर अपना ही ध्यान चलता है .
न तो देश की पडी है , न समाज की .
न पशुओं की पडी है और न ही मनुष्यों की .
न उचित का विचार है और न ही अनुचित का 
न न्याय का न नीति का 
न क़ानून का , न परम्परा का
बस एक अपना विचार चलता है निरंतर
देश को छोड़ समाज की सोचता है , समाज को छोड़ परिवार की .
परिवार में , परिवार को छोड़कर ध्यान अपने बीबी और बच्चों पर केन्द्रित हो जाता है .
तेरा ये भेद्विज्ञान यह़ी तक नहीं ठहरता है .
अंतर में तो बीबी से भी अपने आपको सर्वथा भिन्न मानता है और उसके साथ भी विविध प्रकार से छल पूर्वक ही व्यवहार करता है .
सिर्फ अपनी और अपनी सोचता है , अपनी सुविधा और आनंद ढूंढता है , अपनी मान बढाई के उपक्रम करता है , सब पर शासन करना चाहता है अनुशासन के नाम पर .
क्या तुझे अन्तरंग क्षणों की चाहत नहीं होती ?
क्या हर कोई दुनिया में अपने लिए स्पेस नहीं माँगता है , कुछ अन्तरग पल नहीं चाहता है .
क्या तू कुछ पल अकेले नहीं बिताना चाहता है , विल्कुल अकेले ?
इसका क्या मतलब है ?
इसके मायने साफ़ हें क़ि तेरे अपने की सीमा अभी भी मात्र तुझ तक ही सीमित है उसमें कोई और शामिल नहीं है .
तब फिर मैं क्या कहता हूँ ?
मैं भी तो यह़ी कहता हूँ .
मैं कहता हूँ तो स्वार्थी दिखता हूँ , करता तू भी यह़ी सब है .
और इसमें गलत भी कुछ नहीं , गलत क्या , यह़ी सही है .
म्मात्र दिशा बदलनी है .
तू यह सब करता है और अपने आप को अपराधी समझता है , इसके लिए अपराध भावना से ग्रस्त होता है .
क्योंकि तू यह सब करता ही अपराध भाव से है .
तेरे इस व्यवहार के पीछे राग और द्वेष की भावना छिपी रहती है , इसलिए यह पाप है , संसार है .
करना यह़ी है पर धर्म भावना से , वीतरागता पूर्वक .
तब यह़ी परम धर्म है
यह़ी भेद विज्ञान
मात्र वीवी और बच्चों से ही नहीं , इस शरीर से भी .
मात्र शरीर से ही नहीं , अपने ही राग , द्वेष , मोह आदि विकारी भावों से .
अरे ! मात्र विकारी भावोंसे ही नहीं हमें तो विकल्प मात्र से ही ऊपर उठकर
एक अभेद आत्मा में स्थित होना है , यह़ी परम धर्म है .
यदि तू ऐसा कर सका तो तेरा कल्याण होगा .

No comments:

Post a Comment