Friday, August 17, 2012

मैं इसे जीवन का अंतिम दिन कैसे कह सकता हूँ ? सचमुच तो यह मौत का अंतिम दिन है . दर असल मैं जिया ही कब ? प्रतिपल मरता ही तो रहा .

तो लो ! आखिर जीवन का यह अंतिम दिन आ ही गया .
जिससे मैं जीवन भर डरता रहा .
जीवन भर बचता रहा .
मैंने जीने के लिए कम और मौत से बचने के लिए ज्यादा प्रयत्न किये .
जीने की तैयारियां कम कीं , मौत से बचने की ज्यादा .
जीवन के बारे में कम सोचा , मौत के बारे में अधिक .

फिर आखिर एक न एक दिन तो यह होना ही था .
यह तो मैं तब भी जानता था .
मुझे जीवन का इतना भरोसा था ही कब : जितना मैं मौत के प्रति आश्वस्त था .
तभी

 तो मैं जीवन पर पहरे बिठाता रहा , पल दर पल , कदम दर कदम .
क़ि कहीं इस पर मौत की छाया भी न पड जाए .
यह जानते हुए भी क़ि जिस दिन वह आ धमकेगी , किसी के रोके ना रुकेगी .
एक क्षण , एक पल .
मैं इसे जीवन का अंतिम दिन कैसे कह सकता हूँ ?
सचमुच तो यह मौत का अंतिम दिन है .
दर असल मैं जिया ही कब ?
प्रतिपल मरता ही तो रहा .

जीवन भर मौत को ही तो याद करता रहा .
हलांकि वह निष्ठुर आयी नहीं , और अब आ गयी है तो टलती नहीं .

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