एक दिन हमारा यह जीवन यूं ही समाप्त हो जाता है , उपलाब्धिविहीन !
क्यों ? कैसे ?
तब हम क्या करें इसे बचाने के लिए ?
१० घंटे की लम्बी नींद निकालकर अभी - अभी उठा हूँ , पर अभी भी अलसा ही रहा हूँ , खुमारी उतरती ही नहीं .
यह नींद तो एक ऐसी खाई है क़ि इसमें जितना भी डालो कम ही है , यह कभी भरती ही नहीं . अभी उठा हूँ १०-१२ घंटे बाद फिर सो जाउंगा , कम नहीं , फिर वही ८-१० घंटे के लिए . हो न हो बीच में ही कभी अवसर मिल गया तो घंटे - दो घंटे के लिए एक छोटी सी नींद निकाल लूं .
दिन के २४ घंटों में से १०-१२ घंटे तो यह नींद ही हजम कर जाती है ; यानि क़ि ६० बर्षों की जिन्दगी में से कमसे कम २४ बर्ष .
फिर इस जीवन में बचता क्या है ?
घंटे - दो घंटे नित्य कर्म और बनने संबरने में लग जाते हें , वही घंटे - दो घंटे दिन में कई ब़ार खाने - पीने में , यानि क़ि जीवन के १० और साल .
अब ज्यादा नहीं तो कमसे कम ८-१० घंटे तो आजीविका में भी चले ही जाते हें , इससे कम तो कोई इसमें खपाता नहीं , चाहे १० कमाए या १० लाख , चाहे आवश्यकता हो या न हो .
तो लो जीवन के २४ साल और पूरे हुए .
अब बचता क्या है ?
६० बर्ष के जीवन में मात्र २ बर्ष ?
२४ घंटेके दिन में सिर्फ २ घंटे ?
अरे ! यह तो " एक अनार - सौ बीमार " वाली बात हुई .
घंटे सिर्फ दो - चार और करने को काम एक हजार .
खेलना - कूदना , घूमना - फिरना , मौज - मस्ती , गपशप , निंदा - प्रशंसा , उत्सव - मातम , दोस्ती - यारी , थकान - बीमारी और न जाने क्या - क्या .
अब इन सब कामों में ऐसा तो कुछ दिखता नहीं जो कल तक भी चलता हो , जिस का प्रभाव कल तक भी टिकता हो .
यह सब तो आज करते हें और सिर्फ आज के लिए ही पर्याप्त नहीं होता है .
१०-१२ घंटे सो लिए और १०- १२ घंटे के बाद ही फिर से उनींदे . कल का सोया आज किसी काम का न रहा .
यह़ी हाल नित्य कर्म का भी है , कुछ भी करलो इसका प्रभाव अधिकतम २४ घंटे ही टिकता है .
रही बात बनने संबरने की सो यह तो दिन भर ही चलता रहता है , कितना ही लीपो - पोतो , मन भरता ही नहीं , प्यास ( तड़प ) बनी ही रहती है , प्रतिपल .
कमोवेश यह़ी हाल खाने - पीने का भी है , दिन में दो ब़ार भरपूर खाना और दो ब़ार नाश्ते के अलावा चाय - पानी , पान - तम्बाकू आदि , यानि क़ि बस चलता ही रहता है , भूंख कभी खत्म नहीं होती है और खाया - पिया घंटों से ज्यादा टिकता नहीं .
और आजीविका तो हमें रोज चाहिए ही . मानो हम आजीविका के लिए बने हों , आजीविका हमारे लिए नहीं .
हमारी अन्य सब गतिविधियाँ भी कमोवेश इसी श्रेणी में आती हें .
अब दिन की आवश्यकताएं पूरी करने में ही दिन पूरा हो गया तो उपलब्धि क्या रही दिन की ?
जीवन की आवश्यकताएं पूरी करने में ही जीवन खप गया तो उपलब्धि क्या रही जीवन की ?
ज़रा विचार तो कर !
विचार नहीं किया तो यूं ही लुट जाएगा .
विचार करेगा तो मार्ग निकल ही आएगा .
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