अहो ! यह मैंने क्या किया ?-
मुझे जो प्राप्त था , उसे तो मैं अपनी बपौती मान बैठा था ; मानो यह तो सदा ही मेरे पास रहेगा ही .
मैंने उसका सही तरीके से उपयोग करने के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं , बस जो कुछ मेरे पास नहीं था वही जुटाने के लिए निरंतर दौड़ता रहा .
जिसके लिए दौड़ा वह तो मिला तो मिला , न मिला तो न मिला , कम या ज्यादा मिला , अच्छा या बुरा मिला , सही या गलत मिला पर जो मेरे पास था वह जरूर चला गया , छिन गया , लुट गया , खो गया या नष्ट हो गया .
मेरे पास चैन था , सुकून था , समय था , शक्ति थी , स्वास्थ्य था , प्यार और दुलार था , उत्साह था , सरलता थी , उदारता थी , चरित्र और ईमान था , अपने थे , मित्र थे , कल्पना लोक था , नींद थी , भूंख थी .
आज मेरे पास बहुत कुछ है पर इनमें से कुछ भी नहीं .
एक -एक कर कम या ज्यादा सब कुछ चला गया , जो शेष है वह भी एक एक कर नष्ट हो रहा है और मैं ?
मैं तो बस अभिशप्त हूँ उन्हें लुटता हुआ देखने के लिए .
आज एक दांत टूटता है तो दुनिया भर की असुविधा हो जाती है और एक बाल झड़ता है तो चैन उड़ जाता है .
आज पाँव चलता नहीं , हाथ उठता नहीं , आँख देखने से और कान सुनने से इनकार करने लगे हें , नाक सिर्फ बहने का काम करती है और पेट जलने का . पूरा शरीर बस दर्द करने के काम का रह गया है .
मेरी कार अब घर से ज्यादा मोटर मेकेनिक के पास रहती है क्योंकि उसका होर्न के शिवाय सब कुछ बजता है और मैं घर से ज्यादा समय अस्पताल में बिताने लगा हूँ .
मष्तिष्क की उर्वरा शक्ति कहाँ चली गई ,पता ही नहीं चला . अब वहां बस , कूड़ा - करकट भरा है , राग- द्वेष , चिंता - भय , गिले - शिकवे , अतृप्त लालसा और असंतोष , छद्म अहसास और मिथ्या मान्यताएं .
कहने को तो अब वक्त ही वक्त है मेरे पास पर अब " मेरा वक्त न रहा , वक्त मेरा न रहा " पहिले मैं वक्त का न हुआ , अब वक्त मेरा न रहा ; अब तो मुआ वह भी काटे नहीं कटता .
कहते हें - " दिया बुझने से पहिले ज्यादा तेजी से जलता है " ; अब मेरी सासें भी तेज चलने लगीं हें .
जो मेरे साथ हो रहा है , वही मेरे पुरखों के साथ भी हुआ था पर उनके साथ यह सब होते हुए मैं देख न सका . इसका मतलब यह कतई नहीं है की यह सब होते हुए मैंने देखा ही नहीं ; न सही अपने पुरखों के साथ ,पर औरों के साथ देखा है , देश - गाँव में देखा है , गली - मुहल्ले में देखा है , पडौसी को देखा है .
मैंने बच्चों को जन्म लेते देखा है , शैशव को पलते देखा है , बचपन को बढ़ते देखा है , यौवन को मदमस्त देखा है , जवानी को ढलते देखा है , प्रौढ़ता को पकते देखा है , बुढापे को घिसटते देखा है और जीवन को मरते देखा है .
क्या नहीं देखा , सब कुछ देखा है , सब कुछ सब तरह का देखा है , सब तरह से देखा है .
बस देखा ही देखा है , सीखा कुछ नहीं .
कौन जाने क्यों ? कभी विचार ही नहीं आया की जो इनके साथ हो रहा है , कभी मेरे साथ भी हो सकता है , मेरे साथ भी होगा .
क्योंकर नहीं होगा ?
मैं किन मायनों में इनसे भिन्न हूँ ?
तब क्यों मैंने कुछ नहीं सीखा ?
घोर दुर्भाग्य के शिवाय और क्या कहें इसे इसे ?
पर अब क्या-------------------- ?
पुरखों ने नहीं सीखा और उन्होंने भोगा , मैंने नहीं सीखा और मैंने भोगा ; पर इससे क्या ?
वे भी नहीं सीखेंगे ! अब भी नहीं .
मेरे बच्चे अब भी सीख ले सकते हें , वे अब भी सीख सकते हें .
यदि सीख गए तो जीवन का आनंद ले सकते हें , जीवन को सफल भी कर सकते हें , यदि नहीं तो क्या फर्क पड़ता है ? जो सबका हुआ उनका होगा . इससे बुरा तो और क्या होगा ?
पर नहीं ! वे सीख गए हें , मैंने उन्हें सिखाया है , जीवन जीना सिखाया है , जीवन का अर्थ बताया है , जीवनका मर्म समझाया है .
जो यह समझेगा , अपनाएगा , उसका कल्याण होगा .
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