अभी तो मैं जबान हूँ , अभी तो सारा जीवन पड़ा है , अभी तो बहुत जीना है , यह कपोल कल्पना है जो हमें इस तरह से छलती है कि कहीं का नहीं छोडती
पढ़िए ! किस तरह ?
करबाते ? पर यह क्या ? इस सबका मतलब यह तो नहीं कि मौत आकर इस तरह असमय ही हमे दबोचले . यह तो आन्याय है , छल है मेरे साथ , मेरे परिजनों के साथ .
मैंने तो सोचा था , एक दिन बहादुरी के साथ मरूंगा , जिस तरह शान के साथ जीवन जिया है उसी तरह शान के साथ मौत काभी वरण करूंगा , पर यह तो मौक़ा ही नहीं देती ? अब इस तरह , अचानक , असमय मैं ऐसे इसका स्वागत कर सकता हूँ ?
अभी तो मुझे बहुत कुछ करना शेष है , कितने - कितने महत्वपूर्ण ,कितने सारे काम ; सभी तो अधूरे ही पड़े हें . और फिर सबसे महत्वपूर्ण काम , अपने आत्म कल्याण का , उसकी तो मैंने शुरुवात ही नहीं की है , सोचा था यह मंदिर पूरा हो जाए तब अपने ही बनाए इस भव्य मंदिर में ही अपने धर्मध्यान की शुरुवात करूंगा , पर यह अवसर तो हाथ ही न आयेगा .
समझ नहीं आता है की अब क्या करूँ क्या ना करूँ ? डाक्टर कहते हें कि मेरे हाथ में 15 दिन हें , इन 15 दिनों में क्या - क्या कर लूंगा ?
करने को तो अब मात्र धर्म ही करना योग्य है , आत्मा की शरण में जाना ही योग्य है . योग्य तो है पर क्या मेरे लिए यह संभव है ?
जिस आत्मा को जाना नहीं , पहिचाना नहीं , अब 15 दिन में क्या कर पाउँगा ?
और फिर करूंगा भी कैसे ? जीवन भर जो कुछ किया है वह सब कुछ इस तरह बिखरा पडा है क्या एस एही छोड़ दूं ? किसी को सम्भल्बाऊ नहीं ?
अरे ! यह कैसे संभव है ? जिसके लिए जिया , जिस पर मरा , ऊसे ऐसे ही कैसे छोड़ सकता हूँ ?
जो करना था , जो करना चाहिए था , वह तो जीवन भर ना किया , और जो करने में सारा जीवन झोंक दिया वह तो मेरे किसी काम नहीं आया , मेरे सारे जीवन की कमाई देकर भी अब मैं जीवन का एक अतिरिक्त क्षण नहीं खरीद सकता हूँ , अब उसी को संभालने और सम्भाल्बाने में ही बाकी बचे 15 दिन भी गंबादूं ?
न गंबाउन तो क्या यूं ही लुट जाने दूं , बिखर जाने दूं ? जिसके एक-एक पौधे को सींचा , एक -एक पत्ती का जतन किया , क्या उस सम्पूर्ण बाग़ को ही यूं ही छोड़ दूं , उजाड़ जाने के लिए ?
क्या योग्य है और क्या अयोग्य , कौन बतलायेगा मुझे , कौन समझाएगा मुझे ?
पर यदि किसी को सम्भाल्बाने बैठूं तो भी 15 दिन तो यूं ही बीत जायेंगे , कितना कुछ है बतलाने को , जीवन भर का अनुभव !
फिर है कौन जिसे यह सब संभलादूं ? यदि कोई मिला होता तो अब तक संभला न देता ?
यदि 10-20 लोगों को भी संभलबाउं तो क्या बे सभी मिलकर काम कर सकेंगे , उनमें मत भिन्नता न होगी ?
हे भगवान् ! अब मैं क्या करून ?
क्या अब मैं इसी उहापोह में ही उलझा रहूँगा ? जीवन भर जो गलती नहीं की वह अब करूंगा ?
जीवन में कभी भी मैं रुका नहीं , अटका नहीं , द्विधा में न रहा , तुरंत निर्णय किये और क्रियान्वित भी कर डाले पर अब इस अन्तकाल में मुझे क्या हो गया है ? कोई निर्णय क्यों नहीं हो पाता है ?
अरे ! तब भी मैं क्या करता था , यह भी करलूं , वह भी करलूं , सब करने का निर्णय कर लेता था , बिना यह सोचे की यह सब कुछ होगा कब और कैसे ? अब आज जब यह सोचता हूँ की सब कुछ कैसे होगा , तो निर्णय नहीं हो पाता है .
पर अब मैं क्या करूँ ?
यदि यह सब न होता तो कमसे कम आज तो मैं अपने आत्मा का चिन्तन कर पाता ?
आज तक मैं अपने आप को कितना सौभाग्यशाली मानता था कि मुझे यह सब विभूति मिली है , पर आज समझा कि यह मेरा सौभाग्य न थी , यह तो दुर्भाग्य का फल थी , क्योंकि यह भोगने के काम तो आई नहीं और अब आत्म कल्याण में भी बाधक बन कर खडी हो गई है .
हाय ! मैं कितना छला गया !
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