"अभी तो मैं जबान हूँ, अभी तो सारा जीवन पड़ा है, अभी तो बहुत जीना है, यह कपोल कल्पना है जो हमें इस तरह से छलती है कि कहीं का नहीं छोडती."
पढ़िए! किस तरह?मरणान्तक व्यक्ति को संबोधन (१)
यदि जीवन के कुछ ही दिन शेष रहे हों तो -----------?
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
इसी आलेख से -
- "आज क्यों मैं इस मौत को कोसता हूँ कि यह बेवफा हो गयी है, इसका तो बादा था कि एक न एक दिन अवश्य ही आयेगी सो अपना बादा निभाने चली आयी, बेवफा यदि कोई हुआ है तो वह जिंदगी हुई है जो जीवनभर कभी मुझे एक पल के लिए भी अपनी बफादारी के बारे में आश्वस्त तो कर न सकी पर आज अचानक इस तरह मेरा साथ छोड़ने के लिए तत्पर हो गई."
- "---------जो करने में सारा जीवन झोंक दिया वह मेरे किसी काम आया नहीं. अब मेरे सारे जीवन की कमाई देकर भी जब मैं जीवन का एक भी अतिरिक्त क्षण नहीं खरीद सकता हूँ ------"
- "----------चक्रवर्ती भरत को तो पूरे छह खंड में कोई न मिला था जो उसके राजपाट को संभाल लेता-----------तो क्या भारत ठहर गए? अटक गए?"
- "परद्रव्य तो पर है, चक्रवर्ती की संपदा हो या एक तिनका, वह तो छूटा हुआ ही है, वह तो मेरा हुआ ही कब था, मैं ही उसके मोहवश उससे बंधा रहा, अब यह सब तो मेरे साथ जा ही नहीं सकता, तब भी क्या इसके मोह कोही ढोता रहूँ?"
- "मैं अपने आपको कितना सौभाग्यशाली मानता था कि मुझे यह सब विभूति मिली है, पर आज समझा कि यह मेरा सौभाग्य न थी, यह तो दुर्भाग्य का फल थी, मानो यह सब मेरे लिए नहीं मैं ही इस सबके लिए हूँ. क्योंकि यह भोगने के काम तो आई नहीं और अब आत्म कल्याण में भी बाधक बन कर खडी हो गई है.
सबने म्रत्यु को स्वीकार तो कर ही लिया है, अन्यथा ये श्मशान और कब्रिस्तान क्यों बनाते?
जीवन बीमा क्यों करबाते?
पर यह क्या?
इस सबका मतलब यह तो नहीं कि मौत आकर इस तरह असमय ही हमें दबोच ले; यह तो अन्याय है, छल है मेरे साथ और मेरे परिजनों के साथ.
मैंने तो सोचा था, एक दिन बहादुरी के साथ मरूंगा, जिस तरह शान के साथ जीवन जिया है उसी तरह शान के साथ मौत का भी वरण करूंगा, पर यह निष्ठुर तो मौक़ा ही नहीं देती है. अब इस तरह अचानक, असमय मैं इसका स्वागत कैसे कर सकता हूँ?
भला यह भी कोई उम्र है मरने की?
अभी तो मुझे बहुत कुछ करना शेष है, कितने-कितने महत्वपूर्ण, कितने सारे काम हें करने को; सभी तो अधूरे ही पड़े हें. और फिर सबसे महत्वपूर्ण काम, अपने आत्म कल्याण का, उसकी तो मैंने शुरुवात ही नहीं की है.
सोचा था यह मंदिर पूरा हो जाए तब अपने ही बनाए इस भव्य मंदिर में ही अपने धर्मध्यान की शुरुवात करूंगा, पर यह अवसर तो हाथ ही न आयेगा.
समझ नहीं आता है कि अब क्या करूँ क्या ना करूँ?
डाक्टर कहते हें कि मेरे हाथ में 15 दिन हें, इन 15 दिनों में क्या-क्या कर लूंगा?
करनेको तो अब मात्र धर्म ही करना योग्य है, आत्मा की शरण में जाना ही योग्य है.
जिस आत्मा को जाना नहीं, पहिचाना नहीं, अब 15 दिन में मैं क्या कर पाउँगा? और फिर करूंगा भी कैसे? जीवनभर जो कुछ उपलब्ध किया है वह सबकुछ इस तरह बिखरा पडा है, क्या सब कुछ ऐसे ही छोड़ दूं? किसी को सँभलबाऊँ नहीं?
अरे! यह कैसे संभव है? जिसके लिए जिया, जिस पर मरा उसे ऐसे ही कैसे छोड़ सकता हूँ?
पर यदि उसी के इन्तज़ाम में लगा रहता हूँ तो वह मेरे तो किस काम आयेगा? अब मैं तो चला.
इसका इंतजाम न करूं तो यह सब इनके काम भी कैसे आयेगा जिनके लिए मैं मरमिटा.
जो करना था, जो करना चाहिए था, वह तो जीवनभर किया नहीं और जो करने में सारा जीवन झोंक दिया वह मेरे किसी काम आया नहीं.
अब मेरे सारे जीवन की कमाई देकर भी जब मैं जीवन का एक भी अतिरिक्त क्षण नहीं खरीद सकता हूँ तब क्या उसी को संभालने और सम्भलबाने में ही जीवन के बाकी बचे 15 दिन भी गंबादूं?
न गंबाऊँ तो क्या यूंही लुट जाने दूं, बिखर जाने दूं?
जिसके एक-एक पौधे को सींचा, एक-एक पत्ती का जतन किया, क्या उस सम्पूर्ण बाग़ को ही यूं ही छोड़ दूं उजड़ जाने के लिए?
पर यदि किसी को सम्भलबाने बैठूं भी तोभी 15 दिन तो यूं ही बीत जायेंगे, कितना कुछ है बतलाने को, जीवन भर का कर्तृत्व और अनुभव!
फिर है कौन जिसे यह सब संभलादूं?
यदि कोई मिला होता तो अब तक संभला न देता?
पर यदि आजतक कोई नहीं मिला तो क्या गारंटी कि कभी कोई मिल ही जाएगा?
अरे! संभालने वाले हों भी तो क्या सभी को सम्भलबाने का समय मिल जाता है?
आज मैं क्रंदन कर रहा हूँ कि मेरे पास सिर्फ 15 दिन बचे हें, पर इस तरह 15 दिन किसकिसको मिलते हें?
यह मुई मौत तो कभीभी आ धमकती है, और जब आ जाती है तो 15 दिन तो क्या 15 लम्हे तक तो नहीं देती है ये बेमुरब्बत.
रही बात कोई संभालने बाला मिलनेकी, सो मैं तो क्या चक्रवर्ती भरत को तो पूरे छह खंड में कोई न मिला था जो उसके राजपाट को संभाल लेता, यदि कोई संभाल लेता तो छह खंड का साम्राज्य बिखर क्यों जाता?
पर उनके बाद उनके 60 हजार पुत्रों में से और उनके आधीन हजारों मुकुटबद्ध राजाओं में से कोई भी तो ऐसा नहीं निकला जो छह खंड के साम्राज्य को संभाल सकता, तो क्या भारत ठहर गए? अटक गए?
पर उनके बाद उनके 60 हजार पुत्रों में से और उनके आधीन हजारों मुकुटबद्ध राजाओं में से कोई भी तो ऐसा नहीं निकला जो छह खंड के साम्राज्य को संभाल सकता, तो क्या भारत ठहर गए? अटक गए?
भरत को इस विकल्प ने क्यों नहीं सताया कि अगर मैं यूं ही चल दिया तो इस छह खंड का क्या होगा?
इसी उहापोह में यदि भरत ठहर जाते तो क्या होता? वे आज कहाँ होते?
कौन नहीं जानता कि आज उनके ही जैसे बे लोग (अन्य चक्रवर्ती )कहाँ हें जो मरते दम तक सिंहासन पर डटे रहे.
फिर कौन कहता है कि भरत के जाने से छह खंड बिखर गया? कहाँ बिखर गया, क्या बिखर गया? सब कुछ जहां और जैसा था, वहीं और बैसा ही तो बना रहा.
सिर्फ एक बो (पागल) चला गया जो यह मानता था कि इस सारे साम्राज्य को मैंने बाँध रखा है और मैं ही इसका संचालन करता हूँ.
अरे! बो ऐसा कहाँ मानता था (वे तो क्षायिकसम्यग्द्रष्टि थे), यदि बो ऐसा मानते तो यूं ही छोड़ कैसे देते?
फिर एक बात और भी तो है, यदि आज बो इस तरह राजपाट न भी छोड़ देते तो क्या होता?
आज नहीं तो कभी तो छोड़ना ही था.
जीतेजी न सही तो मरकर ही सही, छूटना तो था ही, छूट तो जाता ही.
तब क्या होता?
जो तब होता बो आज हो जाने दे!
राजपाट की तो एक न एक दिन यही नियति तय थी पर यदि भरत समय पर न छोड़ देते तो मोक्ष की जगह नर्क में होते.
आज मैं भरत जैसा मजबूर तो नहीं हूँ न?
भरत के छह खंड के सामने मेरे पास हैही क्या?
क्या लुट जाएगा?
क्या लुट जाएगा?
अरे! भरत के पास तो 96000 पत्नियां और 60000 पुत्र थे, उन्हें तो उनकी भी चिंता हो सकती थी कि "मेरे जाने के बाद उनका क्या होगा, क्या चक्रवर्ती सम्राट के परिजन जमीन पर न आ जायेंगे?
लोग क्या कहेंगे?"
लोग क्या कहेंगे?"
आज मेरे पास तो है ही क्या?
परद्रव्य तो पर है, चक्रवर्ती की संपदा हो या एक तिनका, वह तो छूटा हुआ ही है, वह तो मेरा हुआ ही कब था, मैं ही उसके मोहवश उससे बंधा रहा, अब यह सब तो मेरे साथ जा ही नहीं सकता, तब भी क्या इसके मोह कोही ढोता रहूँ?
अरे! मैं यदि अभी न मरता और 10-20 बर्ष और भी जीजाता तो भी क्या होता, एक न एक दिन तो मरना ही था, क्या तब भी यही उहापोह न होता?
तब फिर क्यों मैं आज भी विचलित हो रहा हूँ? क्यों नहीं वस्तु के इस स्वरूप को मैं सरलता के साथ स्वीकार कर पाता हूँ?
आज क्यों मैं इस मौत को कोसता हूँ कि यह बेवफा हो गयी है, इसका तो बादा था कि एक न एक दिन अवश्य ही आयेगी सो अपना बादा निभाने चली आयी, बेवफा यदि कोई हुआ है तो वह जिंदगी हुई है जो जीवनभर कभी मुझे एक पल के लिए भी अपनी बफादारी के बारे में आश्वस्त तो कर न सकी पर आज अचानक इस तरह मेरा साथ छोड़ने के लिए तत्पर हो गई.
हे भगवान्! अब मैं क्या करूं?
क्या अब मैं इसी उहापोह में ही उलझा रहूँगा?
जीवन भर जो गल्ती नहीं की वह अब करूंगा?
जीवन में कभी भी मैं रुका नहीं, अटका नहीं, दुविधा में न रहा, तुरंत निर्णय किये और क्रियान्वित भी कर डाले, पर अब इस अन्तकाल में मुझे क्या हो गया है?
कोई निर्णय क्यों नहीं हो पाता है?
अरे! पहिले भी मैं क्या करता था?
यह भी करलूं-वह भी करलूं, सब करने का निर्णय कर लेता था, बिना यह सोचे कि यह सब कुछ होगा कब और कैसे?
अब आज, जब यह सोचता हूँ कि सब कुछ कैसे होगा, तो निर्णय नहीं हो पाता है.
पर अब मैं क्या करूँ?
यदि यह सब न होता तो कम से कम आज तो मैं अपने लिए जीपाता, आत्मा का चिन्तन कर पाता?
आज तक मैं अपने आपको कितना सौभाग्यशाली मानता था कि मुझे यह सब विभूति मिली है, पर आज समझा कि यह मेरा सौभाग्य न थी, यह तो दुर्भाग्य का फल थी, मानो यह सब मेरे लिए नहीं मैं ही इस सबके लिए हूँ. क्योंकि यह भोगने के काम तो आई नहीं और अब आत्म कल्याण में भी बाधक बन कर खडी हो गई है.
किसी और ने मुझे नहीं छला, मैं स्वयं अपनी भूल से ही दुखी हुआ हूँ.
हाय ! मैं कितना छला गया !
No comments:
Post a Comment