Thursday, May 9, 2013

एक अंधा और एक लंगडा ( दोनों आधे -अधूरे ) मिलकर ( अंधे के कंधे पर लंगडा बैठकर ) एक सम्पूर्ण व्यक्ति बनना ही हमारी नियति भी है और मजबूरी भी .

दूसरों की जो हरकतें हमें उनका गंभीर अपराध प्रतीत होती हें , अपनी बारी आने पर हमें बड़ी स्वाभाविक लगने लगती हें . दूसरों के उन कृत्यों को हम भूलना-भुलाना नहीं चाहते हें और अपने उन्हीं क्र्त्यों को हम तूल नहीं देना चाहते हें . बस हमारे यही दोहरे पैमाने हमें विवादास्पद बनाते हें .
आखिर तो यह दुनिया है ही ऐसी , यहाँ सभी तो आधे अधूरे ही हें , यहाँ कोई भी तो सम्पूर्ण नहीं , हम नहीं , तुम नहीं , कोई नहीं .
तब किसी से क्या शिकवा , सब अपनी ओर से त्रुटि रहित होने का प्रयास करें और एक दूसरे की कमियों को नजरंदाज करके उनकी पूर्ति स्वयं करने का प्रयास करें .
एक अंधा और एक लंगडा ( दोनों आधे -अधूरे ) मिलकर ( अंधे के कंधे पर लंगडा बैठकर ) एक सम्पूर्ण व्यक्ति बनना ही हमारी नियति भी है और मजबूरी भी .
हमारे चारों ओर जो संयोग हें , जैसे हें ; जो लोग हें , जैसे हें ; जो हालात हें , जैसे हें ; हमें उन्हीं के बीच रहना है/होगा .
हंसकर या रोकर .
हम सभी एक दुसरे के प्रति अधिकतम अनुकूल होने का प्रयास करें और एक दुसरे की कमियों से अधिकतम adjust होने का attitude रखें तो यह जीवन बेहतर तरीके से व्यतीत हो सकता है .
एक दुसरे के मार्ग में बोये गए कांटे आखिर तो अपने ही आँगन में बोये जाते हें , अपने ही मुहल्ले या नगर में या देश में बोये जाते हें , उन्ही राहों से फिर कभी हमें भी गुजरना होता है , तब बे हमें भी चुभते हें .
कांटें बोने की जगह यदि फूल लगाए जाएँ तो उनकी खुशबू भी हमारे हिस्से में भी आयेगी .
हम चाहते हें कि हम जो हें , जैसे हें , दुनिया हमें बिना किसी मीनमेख के , वैसा का वैसा स्वीकार करले , हमारी कमियों पर ध्यान न दे पर जब बारी औरों की आती है तो हम बहुत choosy हो जाते हें , तब हमें सामने बाले में अनेकों कमियाँ दिखाई देने लगतीं हें और हम उन्हें किसी भी कीमत पर नजरअंदाज नहीं करना चाहते हें , हम चाहते हें कि वह अपने आपको बदल डाले , बस .
हमें अपने आप को बदलने में असुविधा होती है और दूसरों के न बदलने में .
हमें अपनी आदतें , जरूरतें और कमजोरियां ( अयोग्यताएं ) स्वाभाविक सी लगतीं हें , साधारण सी लगतीं हें , हम उन्हें सुधारना नहीं चाहते हें , सुधार नहीं पाते हें या उन्हें सुधारने का प्रयत्न तक नहीं करते हें और हम चाहते हें तथा औरों से अपेक्षा रखते हें कि वे उन्हें ignore करें , स्वीकार करें , वर्दाश्त करें .
न तो स्वयं उन पर ध्यान दें और न ही हमें उनका ध्यान दिलायें .
अपनी बारी आने पर हम मानते हें कि यह सब तो स्वाभाविक है , यह तो होता है , हर व्यक्ति में कोई न कोई कमी तो होती है , कोई भी सम्पूर्ण ( पूरा ) नहीं होता है और इसलिए हमें भी आधे-अधूरे बने रहने का और गल्तियाँ करने का , कमजोरियों को पालने का हक़ है और सारी दुनिया को , हम जैसे हें , हैं वैसा का वैसा स्वीकार कर ही लेना चाहिए .
यह हमारा हक़ और उनका कर्तव्य है .
चलिए एक बार हम उनका यह पक्ष स्वीकार भी करलें , पर जब किसी दुसरे के प्रति हमें स्वयं यही सब करने की जरूरत आ पड़ती है जो हम दूसरों से अपने प्रति अपेक्षा रखते हें जब कसौटी पर हम स्वयं न हों , कोई और होता है , तब हमारी स्वयं की यह मान्यता बदल जाती है , .
उक्त हालात में हम सोचते हें कि आखिर यह कैसे संभव है , कोइ कैसे यह सब वर्दाश्त कर सकता है , उन्हें अपनी यह आदत तो सुधारनी ही चाहिए , उन्हें सुधारना ही होगा , अन्यथा हम उन्हें इसके लिए दण्डित करेंगे , उन्हें इसके परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए .
कहने का तात्पर्य यह है कि हमें अपनी कमजोरियां स्वाभाविक लगती हें और हम उन्हें बदलना नहीं चाहते हें और सामने वालों की वैसी ही कमजोरियां हमें उनके अक्षम्य अपराध जैसी लगती हें और उनके लिए हम उन्हें किसी भी हालत में बख्सना ही नहीं चाहते हें .
उदाहरण के लिए -
 
- यदि कोई झूंठ बोलता है तो परिस्थितियाँ कुछ भी क्यों न हों हम उसे गंभीर अपराधी मानते हें , पर जब हम स्वयं झूंठ बोलते हें तो उसे हम हालात का तकादा या वक्त की जरूरत या अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक बतलाकर सामान्य सी बात कहकर खारिज कर देना चाहते हें .
- जब कोई हमारे आसपास जोर - जोर से खांसता है तब हमें बुरा लगता है , उसकी कर्कश आबाज सहन नहीं होती , हम उससे कहते हें कि यदि ऐसा है तो घर क्यों नहीं बैठते हो पर जब खांसी खुद हमें हो हमारा तर्क होगा कि " सिर्फ खांसी हो जाने से जीवन में सब कुछ तो नहीं रुक सकता है , हमें अपने सारे काम तो करने ही होंगे , अपनी जिम्मेबारियों का निर्बाह तो करना ही होगा न ? दूसरों को इसपर ऐतराज नहीं होना चाहिए ".
- यदि कोई समय खर्राटे भरता है तो हम यह किसी भी हालत में वर्दाश्त नहीं कर पाते हें , पर यदि खर्राटे हम भरते हों तो हमारा तर्क होता है कि आखिर मैं इसमें कर ही क्या सकता हूँ ? हम मानते हें कि जो लोग इस पर ऐतराज करते हें वह उनकी अमानवीयता है .

- जब कोई बीमारी से पीड़ित व्यक्ति दर्द से कराहता है तो हम कहते हें कि चुप क्यों नहीं रहता है ? क्या कराहने से दर्द मिट जाएगा ? यहाँ और भी लोग रहते हें ! पर जब कराहने की बारी हमारी होगी तब हमारे कराहने पर ऐतराज करने बाले हमें निष्ठुर प्रतीत होते हें .

- जब हम कहीं देरी से पहुंचें तो हमारी मान्यता होती है कि थोड़ी - बहुत देरी तो हो जाती है , इसमें हायतोबा मचाने की क्या बात है ? पर जब कोई अन्य देरी से आये तब हमें समय की कीमत और punctuality का महत्व याद आता है , हमें लगता है कि जिसे समय की कीमत नहीं वह किसी भी लायक नहीं .

- जब हम देर से सोकर उठते हें , तब हमें लगता है कि " it is my life , इसमें भला किसी को क्या ऐतराज होना चाहिए ?" पर जब दूसरा देर से सोकर उठे तो हमें विचार आता है कि " क्या यह जिन्दगी सोकर गुजारने के लिए है ? जो समय पर उठ नहीं सकता वह जीवन में क्या कर पायेगा , वह नालायक और योग्य है "

- जब हम अपने दोस्तों के साथ घंटों गप्पें करते हें तो हमें यह जीबन की नियामतें मिलने जैसा सुखकारी लगता है और हम उसे quality time मानते हें पर जब कोई दूसरा ऐसा करता है तो हमें यह उसकी आबारगी और वक्त की बर्बादी लगता है .

- यदि दूसरे को ठोकर लगे तो " अंधा है क्या , देखकर नहीं चल सकता ? भगवान् ने दो-दो आखें किसलिए दीं हें ? " , यदि ठोकर हमें लग जाए तो ? तब तो सब लोग हमें सम्भालने में जुट जाने चाहिए .

- यदि हम बस में नहीं चढ़ पा रहे हें तो " आगे बढ़ो ! कोई चलता क्यों नहीं , कितनी जगह पडी है , पूरी बस खाली है " इत्यादि और जैसे ही हम चढ़ पाए कि " कंडक्टर बस चलाते क्यों नहीं , कितनी भीड़ हो pack हो गई है , पाँव रखने को जगह नहीं है ."

- यदि हम किसी से उधार लेकर समय पर न लौटा पायें तो "आखिर मैं क्या कर सकता हूँ , व्यवस्था ही न हुई " और यदि कोई हमारा पैसा समय पर न लौटा पाए तो ? " चोर , बेइमान , धोखेबाज , मक्कार , बादाखिलाफ , लापरवाह , mismanaged और न जाने क्या-क्या ?

- यदि हम किसी से अपनी बात छुपायें तो "यह हमारी privacy है , personal life है , हमारा अधिकार है " पर यदि कोई दूसरा ऐसा करे तो ? तो वह selfish है , सच्चा दोस्त नहीं है , हमारा अपना नहीं है , हमें अपना नहीं समझता है और न जाने -----.

- यदि कोई वक्त पर हमारे काम न आ सके "तो वह स्वार्थी , नाचीज , हमारा कोई नहीं , जो वक्त पर ही काम न आये वह किस काम का , वेबफ़ा " और यदि हम किसी के काम न आ सकें तो " क्या करें , मजबूरी ही ऐसी थी , हम मदद करने की हालत में ही नहीं थे , आखिर हम भी मानव हें , हमारी भी कुछ कमजोरियां हें , कुछ जरूरतें हें "

- यदि हम बहुत बोलें तो यह हमारी मिलनसारिता है , जिन्दादिली है और यदि दूसरा बोले तो ? " बोर , nonstop , बातूनी , गप्पी .

- यदि हम चुप रहें , लोगों से न मिलें सम्बन्ध न बढ़ाएं तो , " my life , my way , my choice , my mood " ऐसा ही यदि दूसरा करे तो " घमंडी , नकचडा ".

आखिर तो यह दुनिया है ही ऐसी , यहाँ सभी तो आधे अधूरे ही हें , यहाँ कोई भी तो सम्पूर्ण नहीं , हम नहीं , तुम नहीं , कोई नहीं .
तब किसी से क्या शिकवा , सब अपनी ओर से त्रुटि रहित होने का प्रयास करें और एक दूसरे की कमियों को नजरंदाज करके उनकी पूर्ति स्वयं करने का प्रयास करें .
एक अंधा और एक लंगडा ( दोनों आधे -अधूरे ) मिलकर ( अंधे के कंधे पर लंगडा बैठकर ) एक सम्पूर्ण व्यक्ति बनना ही हमारी नियति भी है और मजबूरी भी .
हमारे चारों ओर जो संयोग हें , जैसे हें ; जो लोग हें , जैसे हें ; जो हालात हें , जैसे हें ; हमें उन्हीं के बीच रहना है/होगा .
हंसकर या रोकर .
हम सभी एक दुसरे के प्रति अधिकतम अनुकूल होने का प्रयास करें और एक दुसरे की कमियों से अधिकतम adjust होने का attitude रखें तो यह जीवन बेहतर तरीके से व्यतीत हो सकता है .
एक दुसरे के मार्ग में बोये गए कांटे आखिर तो अपने ही आँगन में बोये जाते हें , अपने ही मुहल्ले या नगर में या देश में बोये जाते हें , उन्ही राहों से फिर कभी हमें भी गुजरना होता है , तब बे हमें भी चुभते हें .
कांटें बोने की जगह यदि फूल लगाए जाएँ तो उनकी खुशबू भी हमारे हिस्से में भी आयेगी .

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