Wednesday, August 7, 2013

सब कुछ हो चुकने के बाद समझदारी की बातें अधिक काम की नहीं।

अनेक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए वर्तमान सन्दर्भों में उचित निर्णय लेना एक बात है और सब कुछ घटित हो चुकने के बाद घटनाक्रम की समीक्षा करना दूसरी बात  . 
पूर्व में निर्णय करते हुए हमें उन अनन्त संभावनाओं का ध्यान रखना होता है जिनमें से सिर्फ एक को छोड़कर सभी संभावनाएं घटना घटित होने के बाद निर्मूल हो चुकी होती हें , इस प्रकार बाद की समीक्षा पहिले लिए गए निर्णय के श्रम से अनंतबाँ भाग ही होती है  . 

सब कुछ हो चुकने के बाद समझदारी की बातें अधिक काम की नहीं। 
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

अक्सर मुझे ऐसे विचार आने लगते हें कि अमुक व्यक्ति के साथ व्यवहार में या अमुक मामले में मैंने अपने पर्यटन में कसर छोड़ दी , मुझे ऐसा करना चाहिए था , वैसा करना चाहिए था  . 
जब दुबारा मौक़ा मिला तो मैंने अपने तथाकथित पूर्व गल्ती सुधरने की कोशिश की , पर कुछ नहीं बदला  . 
दरअसल मैंने उससे आगे कुछ कर ही नहीं पाया जो पूर्व में किया करता था क्योंकि लोग और हालात ऐसा करने की इजाजत ही नहीं देते हें  . 
इसका मतलब साफ़ है कि पूर्व में भी मैंने वही किया था जो उन हालातों में सबसे बेहतर था  , वह सब कुछ कर लिया था जो किया जा सकता था  . मैंने कोई चूक नहीं की थी  . 

यदि चूक नहीं थी तो अब अफ़सोस क्यों होता है ?
क्योंकि होता यह है कि जब हम किसी स्थिति का सामना कर रहे होते हें तब तो सभी सम्बंधित लोग और परिस्थितियाँ हमारे सामने होतीं हें और हम उन सब का समुचित आकलन करके उचित निर्णय लेते हें . वही निर्णय लेते हें जो तत्कालीन परिस्थितियों में सबसे उत्तम होता है। 
बाद में जब हम विचारों में अपने पूर्व निर्णयों की समीक्षा करते हें तब हमें मूल मुद्दा तो याद होता है पर हम अन्य तत्कालीन परिस्थितियों को भूल चुके होते हें , और तब हमें वे सब अन्य विकल्प सूझने लगते हें जो उन तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए ट़ाल दिए गए थे  . 
हकीकत तो यह है कि अब एक बार फिर हमारे सामने वही परिस्थितियाँ खडी हो जाएँ तो एक बार फिर हमारा निर्णय वही होगा जो हमने पूर्व में लिया था। 

एक दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात और है -
जब हम निर्णय ले रहे होते हें तब भवितव्य ( क्या होने वाला है ) हमारे सामने नहीं होता है , हमारे सामने अनेक संभावनाएं होती हें कि-

" ऐसा हो सकता है या ऐसा भी हो सकता है।  
यदि हम ऐसा करेंगे तो ऐसा हो जाएगा , बेहतर है हम ऐसा न करें  .  
ऐसा करने में यह नुकसान हो सकता है यदि हम बैसा करें तो नुक्सान होने की संभावना नहीं है चाहे फायदा भी न हो , क्यों न हम ऐसा ही करें ? "

इस प्रकार होनी एक है पर हमें अनेक संभावनाओं को ध्यान में रखकर निर्णय लेना होता है इसलिए हमारे निर्णय में अनेक मर्यादाएं लागू हो जाती हें  . 
जब सब कुछ हो चुकने के लम्बे समय बाद हम उन घटनाओं पर पुनर्विचार करते हें तब एक परिणाम हमारे सामने आ चुका होता है और हमने जिन अनेक अन्य संभावनाओं की कल्पना पहिले की थी वे निर्मूल हो चुकी होती हें , तब हमें वे निर्णय बेहतर प्रतीत होने लगते हें जो उक्त अनेक सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर टाल दिए गए थे  . इस अवसर पर हम यह भूल जाते हें कि तब हम यह कहाँ जानते थे कि अंततः क्या होगा। 

यथार्थ तो यह है कि अज्ञान ( या सीमित ज्ञान ) और अनिष्ट की आशंका तथा उससे बचने की भावना हमारे अनेक बेहतर विकल्पों ( alternative ) को टाल देते हें और हमें अपेक्षाकृत कम उचित, कम सही , कम अच्छा विकल्प चुनने पर मजबूर होना होता है  . 

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