क्या " जैसे को तैसा " एक सही नीति है ?
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
यदि ऐसा होता तो बुरे काम करते ही क्यों ?
इसका मतलब है कि हम न तो इस सिद्धांत पर पूरा भरोसा करते हें और न ही इसे अपने ऊपर लागू ही करना चाहते हें।
यह तो हम सिर्फ दूसरों पर ही लागू करना चाहते हें।
सच है न ?
नहीं यह भी सच नहीं है।
दुसरे के भी अच्छे कामों पर हम यह लागू नहीं करना चाहते हें।
किसी के द्वारा किये गए बहुत से अच्छे कामों के बदले भी हम उन्हें थोड़ा सा भी अच्छा नहीं देना चाहते हें और किसी की छोटी सी भी चूक या गलती की हम उन्हें बहुत बड़ी सजा देना चाहते हें
यह तो हुई हमारी बात , पर सचमुच भी क्या यह सिद्धांत सही है ?
एक बात बतलाइये !
किसी ने एक गलती की , किसी को कष्ट दिया , तब क्या जरूरी है कि हम उसकी गलती को ही दुहरायें , हम भी वही गलती करें और हम उसे कष्ट दें ?
उसने एक गलती की और वही गलती हम उसके साथ दुहराएंगे तो गलती मिट कैसे जायेगी ? इस तरह तो एक और एक मिलकर दो गलतियां हो जायेंगीं न ?
क्या किसी के द्वारा किये गए गलत काम का अनुशरण करना गलती नहीं है ?
क्या अनुशरण करने के लिए वही बचा है ?
क्या हमें उन सज्जनों का अनुशरण नहीं करना चाहिए जो किसी भी हालत में अपनी सज्जनता नहीं छोड़ते हें ?
भले लोगों के साथ भी और बुरे लोगों के साथ भी।
यदि हम इसी तरह से बुरे के साथ बुरा की परम्परा को आगे बढाते जायेंगे तो क्या ये बरी हरकतें दिन दुनी , रात चौगुनी नहीं बढेंगी ?
क्या ये १ से २ , २ से ४ , ४ से ८ , ८ से १६ नहीं होंगीं ?
यदि ये इसी तरह बढ़ती रहीं तो क्या एक दिन इस धरती पर बुराई ही बुराई नहीं छा जायेगी ?
क्यों नहीं हम मात्र सज्जनों के सज्जनता बहरे कार्यों का अनुशरण करे , उन्हें द्विगुणित करें और सभी के बुरे कार्यों को अनदेखा करदें , भूल जाएँ।
हो न हो अपनी इस उपेक्षा से निराश होकर बदी ( बुराई ) स्वयं ही आत्मघात करले।
अभी तो बदी ( बुराई ) इसलिए बढ़ रही है कि किसी न किसी हद तक हम सभी इसे भी जरूरी मानते हें।
हम ही इसे सींचते हें , हम ही इसे पोषते हें।
तो कहिये क्या हम सब तैयार हें सज्जन बनने के लिए और दुर्जनता का त्याग करने के लिए ?
जैसे को तैसा मिलने से , जुर्म भी दुगुना हो जाता है
वे कहते हें न्याय मिल गया , पर न्याय खो जाता है
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