बेहतर तो यह है कि हम वर्तमान की अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को रेखांकित करें और उसके साधन जुटालें , फिर अपने दूरगामी हित और अहित को पहिचानें और हित के उपाय करें।
यदि हमारा पेट भर जाता है और हम तृप्त हो जाते हैं तो इस बात का क्या अफ़सोस करें कि दुनिया में हमें उपलब्ध तो बहुत कुछ है पर हम उसका उपयोग या संग्रह नहीं कर पा रहे हें , क्योकि दुनिया में भोग्य पदार्थ तो अनंत हें और हमारी भोगने की शक्ति तो अत्यंत सीमित है इसलिए यह अफ़सोस तो कभी ख़त्म हो ही नहीं सकता है , यदि सुखी होना है तो हमें अपनी वृत्ति को ही बदलना होगा।
लोग क्या - क्या कर रहे हें ,
हम कितना कुछ कर सकते हें पर कर नहीं रहे हें या कर नहीं पा रहे हें ,
सब बहुत आगे निकल गए और हम यूं ही रह गये ,
हममें बहुत शक्ति और योग्यता है और हमारे पास साधन भी बहुत प्रचुर और बहुत अच्छे हें , हमें कुछ करना चाहिए। "
उक्त सभी सोच हमें मात्र पीड़ा देने वाले , निराश करने वाले और एक अंधी दौड़ में शामिल करने वाले हें , इनका कोई रचनात्मक और सकारात्मक परिणाम नहीं है।
मात्र इसलिए कि बहुत कुछ हमें उपलब्ध है , हम उनके संग्रह और सम्भाल में जुट जाएँ तब तो हम उनके लिए हो गए वे हमारे लिए कहाँ रहे ?
हमें तो जो कुछ चाहिए है वह हमारे लिए चाहिए है , हमारे सुख और संतुष्टी के लिए चाहिए है , हमारे अपने हित के लिए चाहिए है , न कि उन भोग्य पदार्थों की सार्थकता के लिए।
दुनिया में तो जहर भी उपलब्ध है , तो क्या हम मात्र इसलिए उसका सेवन करें कि आखिर उसका भी कोई उपयोग तो होना ही चाहिए न ? वह क्यों व्यर्थ जाए ?
ज़रा विचार तो कीजिए !
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