अब मुझे इस संसार का स्वरूप समझ में आ गया है , लोग आपको किस तरह लुभाते ( फंसाते ) हें
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
अब मुझे इस संसार का स्वरूप समझ में आ गया है , लोग आपको किस तरह लुभाते ( फंसाते ) हें . जब आप एक बार उनकी बातों में आ जाते तब पता लगता है कि ये कहाँ आ फंसे हम .
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
अब मुझे इस संसार का स्वरूप समझ में आ गया है , लोग आपको किस तरह लुभाते ( फंसाते ) हें . जब आप एक बार उनकी बातों में आ जाते तब पता लगता है कि ये कहाँ आ फंसे हम .
(पर अब कुछ नहीं हो सकता ,
अब तो निभाने में ही भला है अन्यथा वह अच्छा भला एक दाना भी हाथ से गया )
कितना आसान है यह कह देना
कि गेंहूं का एक दाना खेत में डालो और सेकड़ों दाने पैदा हो जाते हें .
हाँ ! हो तो जाते हें ,
इसमें कोई शक नहीं है पर इतनी आसानी से इस तरह नहीं हो जाते हें जितनी आसानी से यह
बात कह दी जाती है
वह एक दाना डालने और बो
सेकड़ों दाने पैदा होने के बीच और भी बहुत कुछ होता है जो उस एक मात्र दाने को उन
सेकड़ों दानों के समकक्ष लाकर खडा कर देता है और कभी – कभी तो ऐसा लगता है कि इस
कीमत पर इन सौ दानों को पाने से अच्छा तो बिना कुछ किये वह एक दाना ही बेहतर था .
अरे ! सबसे पहिले तो एक उपजाऊ
खेत चाहिए उस एक दाने को बोने के लिए .
फिर हल , बैल , खाद , पानी
, दबा और जुताई , बुबाई , सिंचाई , निराई , गुड़ाई , रखवाली , फसल कटाई और न जाने
क्या-क्या ?
फिर सीधे सिर्फ गेंहूं के
दाने ही तो नहीं पैदा हो जाते हें , कितनी खरपतबार , कितनी घास और भूसा पैदा होता
है .
फिर खलिहान और लगान ?
और इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण
उस बुबाई और कटाई के बीच का चार-पांच महिने का समय , उतार-चडाव भरा समय जब मौसम के
हर मिजाज के साथ हमारे ह्रदय की धडकनों का सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है , थोड़ी
गर्मी ज्यादा पडी तो मुसीबत थोड़ी कमी रह गई तो मुसीबत , दो दिन पहिले पानी न बरसे तो
फसल खतरे में , दो दिन बाद बरस जाए तो बर्बादी ,
ठण्ड पड़े तो सर्दी भुगतो न पड़े तो फसल चौपट .
इस अनंत पराधीनता के बाद सौ
दाने हाथ में आते हें , अब आप ही बतलाइये कि क्या वह एक ही भला नहीं था ?
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