Friday, July 11, 2014

असीमित भोग/भोगसामग्री असीमित दुखदायी होती है , सीमित होकर यही सीमित दुःख देते हें तो स्वाभाविक ही है कि इनका अभाव सम्पूर्ण सुख देने वाला होगा , वह दुखदायी कैसे हो सकता है ?

दुनिया में अनंत भोग सामग्री के मालिक अनंत दुखी हें , वे संयोग जो सुख और सुखकारक माने जाते हें , उन संयोगों की प्रचुरता (अधिकता) वाले लोगों में दुखों की ही प्रचुरता पाई जाती है सुख अंशत: भी नहीं , कदाचित अशुभ संयोगों से घिरे लोग दुखी भी दिखाई नहीं देते हें , तब हम क्यों नहीं इस निष्कर्ष पर पहुँचते हें कि संयोग सुखी/दुखी नहीं करते हें .

क्या हम अविवेकी ( बेबकूफ, मूर्ख ) हें , क्या हम बुद्धीहीन ( बुद्धू ) हें , क्या हम द्रष्टिहीन ( अंधे ) हें कि हमें यह सब दिखाई ही नहीं देता , क्या हम मतवाले ( पागल ) हें , या हम मदहोश ( पियक्कड़ ) हें , क्या हम कान के कच्चे ( नादान ) हें कि हम लोगों की इस सत्य के विपरीत बातों में आ जाते हें या हम स्वयं अपने प्रति इतने लापरवाह , निष्ठुर और क्रूर हें कि हमें इस सब की परवाह ही नहीं .

अरे भाई ! अगर तेरा अपना निर्णय निवृत्ति की ओर जाता हो तो जगत में किसी से सलाह मत करना . दुनिया में आजतक किसी को किसी से भी यह सलाह नहीं मिली है तो तुझे कैसे मिलेगी ?
सलाह लेना तो दूर , किसी के सामने अपना यह अभिप्राय भी प्रकट मत करना , नहीं तो लोग तुझे इस मार्ग पर आगे बढ़ने नहीं देंगे क्योंकि यहाँ तेरे मत के लोग हें ही कहाँ ; वे सब तो मोक्ष चले गए . यहाँ तो एसे विचार वाला तू अकेला ही है .
अब तू दिनरात इन भोगों में ही रचेपचे , निमग्न संसारी जीवों की ही संगति करता है , उनसे ही वार्तालाप करता है और उनसे तो भोगों की ही शिक्षा मिलती है और तू विचलित होने लगता है . अब यह आत्मा ज्ञान के शिवाय तो कुछ करता नहीं है , हाँ ! मिथ्यात्व के उदय में राग-द्वेष करता है और अभी तू तीव्र मिथ्यात्व की अवस्था में ही है सो इनकी बातों में आ भी जाता है . तेरा निवृत्ति संबंधी चिंतन तो मात्र कुछ पल चलता है और फिर यह भोगों संबंधी प्रेरणा और चर्चाएँ दिनरात चलती हें , तब तू अपने निवृत्ति के निर्णय पर टिकेगा कैसे ?
यदि तू अपने ज्ञान और वैराग्य का पोषण करना चाहता है तो निरंतर तत्संबंधी विचार कर , ऐसे ही ग्रंथों का स्वाध्याय कर जिनमें इनका ही पोषण है , ऐसे ही लोगों की संगति कर जिन्हें ऐसी ही  रुचि है .
सच तो यह है कि संयोग सुख/दुःख देते ही नहीं हें फिर भी यदि वे तुझे सुख/दुःख दायी दिखाई देते भी हें तब भी तू यह तो स्वयं भी स्वीकार करेगा कि वही संयोग हमेशा ही एक जैसा दुःख/दुःख नहीं देते हें और ऐसा भी होता है कि सुख का कारण समझे जाने वाले संयोग दुःख देते देखे जाते हें दुःख का कारण समझे जाने वाले संयोग सुख देते से दिखाई देते हें .
प्रतिदिन और प्रतिपल तुझे यह अनुभव भी होता ही होगा कि एक समय पहिले जो सुख सा लगता था , पलभर में ही वह दुःख लगने लगता है , जो कम मात्रा में सुख लगता है वही अधिक मात्रा में दुःख हो जाता है , जैसे भोजन , सर्दी-गर्मी आदि .
यदि एक बार हम यह मान भी लें कि आवशयक सीमित मात्रा में भोग सामग्री सुख देती है तब भी यह तो तू स्वयं ही स्वीकार करता है कि आवश्यक्ता से अधिक प्रत्येक संयोग दुःख का कारण है , तब तू क्यों नहीं भोग सामग्री आवश्यकतानुसार सीमित करने की दिशा में आगे बढ़ता है , क्यों अनंत की दौड़ में शामिल रहता है ?
एक बार सीमा में तो आ ! सम्पूर्णता तो आ ही जायेगी .
अरे भाई ! भोग सामग्री कमाना और जुटाना ही नहीं , उसे सहेजना और सुरक्षित रखना भी प्रयत्न साध्य , समय साध्य और व्यय साध्य है और ये सब क्रियाएं भी दुखी करने वाली ही हें , सुख देने वाली नहीं . तेरी वर्तमान भूमिका ( हैसियत , मानसिकता , राग की तीव्रता ) में भी भोग और भोग सामग्री सीमित रखने योग्य ही हें , असीमित नहीं , इसी में तेरा कल्याण है .
तू एक बार इन्हें सीमित करने की प्रक्रिया तो प्रारम्भ कर ( सीमा चाहे जो भी हो ) परिणाम स्वयं  तेरे सामने आने लगेंगे , फिर तो तू स्वयं ही आपनी सीमाओं को भी और-और सीमित करने में लग ही जाएगा .
जब तू स्वयं यह स्वीकार करता है कि असीमित भोग/भोगसामग्री असीमित दुखदायी होती है , सीमित होकर यही सीमित दुःख देते हें तो स्वाभाविक ही है कि इनका अभाव सम्पूर्ण सुख देने वाला होगा , वह दुखदायी कैसे हो सकता है ?
जगत के लोगों से क्या राय करनी , क्या तुझे उनकी राय मालूम नहीं है ? एक गरीब नौकर का बेटा यदि अपना व्यापार करने का निर्णय करता है तो अपने पिता और उसके साथियों से सलाह नहीं करता है , क्योंकि वह जानता है कि उनसे क्या सलाह मिलेगी , उनसे गुलामी के शिवाय और क्या सलाह मिल सकती है ?
जब उसने उद्यम करने का साहस कर ही लिया है तो वह ऐसे ही लोगों की जीवनी पढता है , ऐसे ही लोगों की संगती करता और बात सुनता है जो स्वयं इस मार्ग पर चले हें और सफल हुए हें .
मेरे पिताजी के एक मित्र ने उन्हें सलाह दी थी कि “ पंडितजी ! यदि व्यापार करना है तो दीवालियों की बात कभी मत सुनना , यदि उनकी सुनी तो कभी व्यापार नहीं कर सकोगे .”
अब यहाँ इस संसार में तेरे इर्दगिर्द जो भी लोग हें वे सब मोक्षमार्ग के लिए तो दिवालिये ही हें न ?
मोक्षमार्ग में उनकी हैसियत ही क्या है ?
तू उनकी सलाह लेकर मोक्ष जाना चाहता है ?
तेरा भी वही हाल होगा जो दीवालियों की सलाह लेकर व्यापार करने वाले का होता है .
एक बात कहूं ! तू इस भ्रम में मत रहना कि भोगों के बिना जीवन ही नहीं चल सकता .
क्या दरिद्रियों का जीवन नहीं चलता है ?
अब यह मत कहना/सोचना कि तुम्हारी तुलना दरिद्रियों से कर रहा हूँ , उदाहरण तो एकदेश ही होता है , यहाँ तो मात्र इतना साबित करना है कि भोगसामग्री के अभाव में भी जीवन जिया जा सकता है .
भोगों का अभिलाषी जब भोगसामग्री से रहित होता है तो दरिद्री कहलाता है और भोगों से उदास भोगसामग्री से रहित व्यक्ति संत कहलाता है .
हाँ ! बाहर से तो दोनों एक जैसे ही दिखाई देते हें , हो न हो सामान्य प्रज्ञा वाले लोग दोनों को एक जैसा ही दुखिया दरिद्री समझकर उनका तिरस्कार या उनपर दया करें पर यथार्थ तो यह है कि भोगों से निवृत वैरागी तो उस बाह्य दशा में ही अनंत आनंद में मग्न रहते हें , उन्हीं हालातों में , जिनमें वह भोगों का अभिलाषी दरिद्री महादुखी होता है .
यही महासत्य भी है और यह उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट भी है ही कि “ सुख-दुःख बाह्य संयोगों में नहीं है , सुख तो आत्मा में है , यह तो आत्मा का स्वभाव है , और वह भगवान् आत्मा तू स्वयं ही है .
तू तो अनंत सुखी भगवान् आत्मा है , सुख की खोज में बाह्य जड़ पदार्थों की और मत ताक ! अन्तरोंमुख होकर उस अनंत आनंदमयी निज भगवान् आत्मा को आत्मसात कर तेरा कल्याण होगा .


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