Monday, January 19, 2015

हम स्वयम ही यह नहीं जानते हें कि हम निष्पक्ष सलाह चाहते हें या अपने अभिप्राय के लिए समर्थन जुटाना चाहते हें -

हम स्वयम ही यह नहीं जानते हें कि हम सलाह चाहते हें या समर्थन जुटाना 
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
यह हमारी कार्यकुशलता में कमी और हमारे द्रष्टिकोण की अपरिपक्वता ही है कि हम अपनी विचारधारा और मनोभावों का यथार्थ विश्लेषण नहीं कर पाते हें इसका परिणाम यह होता है कि हमारी कथनी और करनी में फर्क बना रह्ता है
कभी–कभी हम जीवन भर भी यह नहीं जान पाते हें कि हम करना क्या चाहते हें और करते क्या हें. हम किसी मामले पर किसी व्यक्ति से सलाह लेने जाते हें पर सलाह मिलने पर हम नाराज हो जाते हें,क्यों ?
क्योंकि हमें अपने मन के मुताबिक़ सलाह नहीं मिली. हम चाहते थे कुछ और करना और हमें कुछ और ही सलाह दी गई.
मैं पूंछता हूँ कि इसमें नाराजी की क्या बात है ? हाँ ! कदाचित यह हर्ष का बिषय तो हो सकता है.
अरे भाई ! यदि तुम्हें अपने मन की ही करनी थी तब तो तुम स्वतंत्र थे ही न, ऐसा करने के लिए ? कर लेते !
पर नहीं; तुमने सलाह लेने की आवश्यक्ता महसूस की क्योंकि तुम्हें लगा कि हो न हो मेरा अभिप्राय सही न हो या इससे बेहतर भी कोई तरीका हो सकता है.
यह तो बहुत अच्छी बात है, हमें ऐसा ही करना चाहिए, कमसे कम उन महत्वपूर्ण मामलों में तो जरूर, जिनका दूरगामी प्रभाव हम पर और अन्यों पर पड़ने वाला हो.
जब हम किसी से सलाह लें तो उसके समक्ष अपना द्रष्टिकोण प्रस्तुत कर देना भी अच्छी बात है, इससे वह अपनी सलाह देने के लिए और बेहतर स्थिति में होगा, पर यदि उसकी सलाह हमारे मंतव्य के अनुकूल न हो असंतुष्ट होकर नाराजी प्रकट करना उचित नहीं, हालांकि हम उसकी राय मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र हें, किसी की सलाह बंधनकारक नहीं हो सकती है.  
अक्सर होता यह है कि कहने को तो हम सलाह लेने के लिए जाते हें पर अन्तरंग में हमारा अभिप्राय सलाह लेने का नहीं वरन स्वयं अपने ही मंतव्य के लिए समर्थन जुटाने का होता है, और जब सलाह हमारे अपने मंतव्य से अलग आती है तो हम सहज नहीं रह पाते हें. यहाँ उल्लेखनीय तो यह है कि ऐसा अक्सर अन्जाने में होता है, हमें स्वयं ही अपने छुपे हुए अभिप्राय की खबर ही नहीं होती है.
सिर्फ एक यही ऐसा बिषय नहीं है वरन जीवन के अनेकों ऐसे पहलू हें जिनमें यह विसंगति पाई जाती है जहां हम करना कुछ और चाहते हें, करते कुछ और दिखाई देते हें और कर कुछ और ही जाते हें और अपने व्यक्तित्व में व्याप्त इस विसंगति की हमें खबर ही नहीं होती है.

यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यहाँ उन लोगों की चर्चा नहीं हो रही है जो जानबूझकर ऐसा व्यवहार करते हें. यहाँ तो सिर्फ उन भोले लोगों की बात है जिन्हें इस बात का अपता ही नहीं होता है.

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