Wednesday, January 28, 2015

धर्म क्या,क्यों,कैसे और किसके लिए (चौथी क़िस्त,गतांक से आगे)

हमारी कल्पना के भगवान् इन अनेकों श्रेणियों में सबसे ऊपर एक सुपरमेन की श्रेणी में वर्गीकृत किये जा सकते हें जो भोग में भी सर्वोच्च हें औरयोग में भी, जो शारीरिक रूप से भी सर्वाधिक वलिष्ट हें और सर्वाधिक साधनसम्पन्न व प्रभावशाली भी; पर हमारी कल्पना के ये भगवान भी हमारी ही तरह चुनौती रहित या स्पर्धा रहित नहीं हें, इनके कर्तृत्व और सत्ता को चुनौती देने वाले और उसमें दखलंदाजी करने वाली अन्य शक्तियां भी लोक में (हमारी कल्पना में) विद्यमान हें.

धर्म क्या,क्यों,कैसे और किसके लिए (चौथी क़िस्त,गतांक से आगे)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
 अबतक हमने पडा कि किस प्रकार हमारी कल्पना का भगवान् उन सभी मानव सुलभ कमियों और दुर्गुणों से भरापूरा है जिन दुर्गुणों के धारक व्यक्ति से हम साधारण सा सम्बन्ध रखना भी पसंद नहीं करते और ऐसे किसी व्यक्ति की संगति को हम अपने जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य मानते हें.इस प्रकार हमारे और हमारी कल्पना के हमारे भगवान् के बीच का रिश्ता अत्यंत अनिश्चित सा अत्यन्त अविश्वास का,अत्यन्त क्षणिक,स्वार्थ से भरपूर और निष्ठा विहीन ही होता है. अब आगे पढ़िए 

कुए के मेंढक (कूपमंडूक) के लिए सिर्फ कुआ ही सारी दुनिया है और कुए के अलावा दुनिया में और कुछ भी नहीं है. उसकी सोच का दायरा मात्र कुए तक ही सीमित है वह उससे आगे और कुछ भी नहीं सोच सकता है, कल्पना में भी नहीं. आखिर कैसे सोचे ? उसने उस कुए के अलावा औरकुछ देखा ही नहीं है.
हमें कुए के उस मेंढक की तुच्छ बुद्धी पर तरस आ सकता है, आखिर क्यों न आये, यह उसकी वेचारगी ही तो है कि इतने विशाल ब्रहम्मांड की उसे खबर ही नहीं जो हमारे लिए सहज सुलभ है. क्या हमने कभी विचार किया कि हमारी स्थिति भी उस कूपमंडूक से किस मायने में भिन्न है ?
फर्क यदि कोई है तो सिर्फ दायरे का है, उस कुए के मेंढक का दायरा कुए तक सीमित है और हमारा दायरा ? हमारा दायरा बस उससे कुछ ही बड़ा है.
क्या कहा ? मात्र कुछ ही बड़ा ?
हाँ भाई ! कुए के आकार में और तेरी दुनिया के आकार में जितना अन्तर है उससे कई गुना बड़ा अंतर तेरी दुनिया और वास्तविक दुनिया में है; पर तुझे इन बातों की खबर/विचार ही कहाँ; तू भी बस उस कूप मंडूक की ही तरह मात्र अपनी सीमित दुनिया तक ही तो सीमित है, तेरी बुद्धी की गति भी तो एक सीमा से आगे नहीं है.
यही कारण है कि हम सभी लोग तो अपने दिन-प्रतिदिन के छुद्र व्यवहारों में उलझे ही रहते हें, वही संयोग-वियोग, वही अपना-पराया, वही राग-द्वेष, वही लाभ-हानि, वही हर्ष-विषाद, वही मित्र–शत्रु, वही जैसे को तैसा, वही दंड-प्रतिशोध या पुरूस्कार, वही दान-भीक्षा, वही सेवक-स्वामी, छोटा-बड़ा, वही उंच-नीच, वही अनुकूल-प्रतिकूल, वही मौजशौक एवं समस्याएं, वही सदभाव-अभाव, वही भूंख-प्यास, वही व्याधि-रोग या वल, वही मान-अपमान, वही दिन-रात, वही सर्दी-गर्मी, वही जात-बिरादरी, वही स्वदेश-परदेश, वही पुन्य-पाप, वही नैतिक-अनैतिक  वही दिन-हफ्ते-माह-बर्ष औरयुग. हमारी सोच का दायरा इन सबसे आगे नहीं है.
हमारे उक्त सभी मामले द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की मर्यादा लिए हुए हें और इन सबसे सम्बंधित हमारा सोच एक सीमित सोच है इसमें पूर्णता का अभाव है.
धर्म और भगवान् पूर्णता को प्राप्त हें, ये अपूर्ण नहीं हो सकते हें, किसी भी अपूर्णता में धर्म और भगवान् की कल्पना हमारा अविवेक है.
धर्म और भगवान् की उस पूर्णता और विशालता के न तो हमने दर्शन किये हें और न ही वह हमारे ज्ञान और कल्पना का बिषय ही बन पाए हेंक्योंकि हमारे वर्तमान ज्ञान और कल्पना का दायरा अत्यंत सीमित है, हम मात्र वर्तमान या एक सीमित काल की, सीमित क्षेत्र की, सीमित लोगों के सीमित मामलों (सन्दर्भों-concerns) में ही उलझे हुए हें तब वे अनंत गुणों के धारी, अनंत शक्तियों से सम्पन्न धर्म और भगवान् हमारी इस सीमाओं में कैसे समा सकते हें ?
धर्म और भगवान् के सन्दर्भ में हमारी विषमताओं का सबसे बड़ा कारण यह है कि होना तो यह चाहिए था कि हम धर्म का अध्ययन करते, भगवान् के स्वरूप को जानते-समझते, उनके गुणों और शक्तियों को पहिचानते तथा उन्हें अपने में स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ते; पर इसके विपरीत हमने अपनी कल्पना में अपनी कमजोरियों और अवगुणों को धर्म और भगवान् में स्थापित कर लिया इस प्रकार (हमारी कल्पना के) भगवान् भी हमसे (हमारी वर्तमान स्थिति से) किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं रहे, वे भी हमारे जैसे ही हो गए, हममें से ही एक हो गए.
धर्म और भगवान् का वास्तविक स्वरूप समझने की कोशिश करने की बजाय हमने अपनी कल्पना में धर्म और भगवान् का एक काल्पनिक रूप तैयार किया, और विचारों के इस दरिद्री की कल्पना भी आखिर कहाँ तक दौड़ सकती थी; और परिणाम सामने है
हमारी कल्पना के भगवान् भी वीतरागी नहीं हमारी ही तरह रागी-द्वेषी हो गए, वे भी सर्वज्ञ नहीं रहे आधे–अधूरे ज्ञान वाले हो गए, वे ज्ञाता-द्रष्टा नहीं रहे, अकर्ता नहीं रहे कर्ता-धर्ता बन बैठे, वे स्वतंत्र भी नहीं रह पाए वे भक्तों की इक्षा-आकांक्षा और पूजा-प्रार्थना के आधीन हो गए.वे परिपूर्णऔर भी नहीं रहे और हमारे ही सामान मजबूर हो गए, सर्वसामान्य सुलभ समस्त कमजोरियां भी उनके व्यक्तित्व में प्रवेश कर गईं जैसेकि भूंख-प्यास, हर्ष-बिषाद, भय-लोभ, बनाव-श्रृंगार आदि. वे भी हमारी ही तरह पूजकों-प्रसंसकों से खुश और निंदकों पर कुपित होने लगे. आदि-आदि .
हमने हमारी कल्पना के उक्त भगवानों की कथित आराधना को धर्म मान लिया और आराधना के नाम पर उन भगवानों के साथ मोलभाव करने वाले या भीख मांगने वाले व्यापारियों को धर्मात्मा.
जिन्हें कुछ पाने का भरोसा या आशा नहीं है वे उनका नाम स्मरण नहीं करते हें, क्योंकि वे व्यर्थ प्रयत्न नहीं करना चाहते हें, और इसलिए वे नास्तिक कहलाने लगते हें.
ज़रा विचार तो करें कि हमारी कल्पना के ये भगवान् हमें किस तरह अपने से भिन्न दिखाई देते हें, शिवाय इसके कि हमने उनमें उन कुछ शक्तियों के अस्तित्व की कल्पना की है जो उनमें हमसे विशेष हें, वे हमसे अधिक वलशाली और साधन सम्पन्न हें, उनकी सभी इन्द्रियाँ हमसे अधिक प्रवल हें और उनका प्रभाव क्षेत्र हमसे बड़ा है बस !
शक्तिओं, प्रभाव और साधन सम्पन्नता का इस प्रकार का फर्क तो हम मानवों में भी बहुतायत से पाया जाता है और इस फर्क के आधार पर हम मानवों को भी कई श्रेणियों में वर्गीकृत कर सकते हें गरीब-अमीर, कुरूप-सुन्दर, कमजोर-वलशाली, नादान-अनुभवी, मूर्ख-बुद्धीमान, अज्ञानी-ज्ञानी, साधनहीन-साधनसम्पन्न, असमर्थ-समर्थ, प्रजा-राजा इत्यादि. इनमें एक मानव गरीब, कुरूप, कमजोर, नादान, मूर्ख, अज्ञानी, साधनहीन और असमर्थ हो सकता है और दूसरा अमीर, सुन्दर, वलशाली, अनुभवी, बुद्धीमान, ज्ञानी, साधनसम्पन्न और समर्थ को सकता है और इन दो श्रेणियों के बीच सभी मानवों को अनेकों श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है.
हमारी कल्पना के भगवान् इन अनेकों श्रेणियों में सबसे ऊपर एक सुपरमेन की श्रेणी में वर्गीकृत किये जा सकते हें जो भोग में भी सर्वोच्च हें औरयोग में भी, जो शारीरिक रूप से भी सर्वाधिक वलिष्ट हें और सर्वाधिक साधनसम्पन्न व प्रभावशाली भी; पर हमारी कल्पना के ये भगवान भी हमारी ही तरह चुनौती रहित या स्पर्धा रहित नहीं हें, इनके कर्तृत्व और सत्ता को चुनौती देने वाले और उसमें दखलंदाजी करने वाली अन्य शक्तियां भी लोक में (हमारी कल्पना में) विद्यमान हें.
एक ओर हम उस भगवान् को सर्वशक्तिमान कहते हें तो दूसरी ओर हमने अलग-अलग कामों के लिए अलग-अलग भगवानों की नियुक्ति की है, तोक्या प्रत्येक भगवान् की शक्तियाँ भी हमारी ही तरह सीमित हें, और क्या एक ही भगवान् सबकुछ करने में सक्षम नहीं है ?
कार्यक्षेत्रों में इस प्रकार के बंटबारे के कारण (हमारी कल्पना के) भगवानों के बीच भी हम मनुष्यों की ही तरह अधिकारक्षेत्रों का टकराव द्रष्टिन्गत होता है.
-क्रमश:  

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