Monday, April 13, 2015

“मैं” की परिभाषा बदलने से “हित-अहित” या “सुख-दुःख” कैसे बदल जायेंगे ?

धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (आठबीं क़िस्त, गतांक से आगे) 
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

पिछले अंक में हमने पढ़ा - हमने कभी यह सोचा ही नहीं कि किस प्रकार “सुख क्या है” इस प्रश्न का जबाब इसके साथ जुडा हुआ है कि “मैं कौन हूँ”. “मैं” की परिभाषा बदलते ही हमारे सुख-दुःख की और हमारे हित-अहित की परिभाषाएं भी बदल जाती हें.
किस तरह ? पढ़िए –

यहाँ प्रश्न उठता है कि हमारे हित तो हित ही रहेंगे और अहित, अहित. हमारे सुख, सुख रहेंगे और दुःख, दुःख .
आखिर “मैं” की परिभाषा बदलने से “हित-अहित” या “सुख-दुःख” कैसे बदल जायेंगे ?
प्रथम द्रष्टया तो यह बात सही भी लगती है पर यदि हम तनिक गहराई से विचार करें तो बात एकदम स्पष्ट हो जायेगी.
आइये विचार करें –
यह हमारी अपरिपक्वता और हमारे विचारों का आधा-अधूरापन ही है कि अभी तक हमारी “मैं” की परिभाषा ही सुनिश्चित नहीं है, एवं समय, स्थान और परिस्थिति के अनुरूप बदलती रहती है. कभी हम अपने को कुछ मानते हें, कभी कुछ बतलाते हें, कभी कुछ और कभी कुछ.
क्या आप जानते हें जो हर बार अपनेआप को कुछ और, कुछ अलग बतलाते हें उन्हें हम क्या कहते हें ?
पागल !
और वे जिनके अनेकों नाम होते हें ?
“अ, उर्फ़ ब, उर्फ़ स, उर्फ़--------“
ऐसे लोग अमूमन ठग और अपराधी होते हें.
विचार हमें ही करना है कि हम कौनसी श्रेणी में आते हें.
यदि हम अपने अनेकों नामों और पहिचानों की चर्चा करें तो समय-समय पर निम्न नाम द्रष्टि में आते हें-
“मैं मानव हूँ, मैं हिन्दुस्तानी, मैं राजस्थानी, मैं जैन, मैं हिन्दी भाषी, मैं व्यापारी, मैं अमीर , मैं युवक, मैं स्वस्थ्य, मैं पिता, मैं बुद्धिमान, मैं विद्वान, मैं दानवीर और ऐसे ही अनेक नाम हें मेरे.
बस ! अब मेरी आवश्यक्ता नहीं है, आप ही अपने आपको उपरोक्त अनेकों प्रकार के “मैं” में से प्रत्येक में एक-एक करके स्थापित कीजिये, आत्मसात कीजिये, उसी “मैं” में लीन हो जाइए, उसी “मैं” मय हो जाइए और फिर बतलाइये कि क्या हर बार आप एक जैसा महसूस करते हें ?
क्या हर बार आपके हित-अहित और सुख-दुःख वही बने रहते हें, आमूलचूल बदल नही जाते हें ?
आप पायेंगे कि अधिकतम तो ये एक दुसरे के एकदम विपरीत होते हें.
कोई उदाहरण आता है आपके ख्याल में ?
नहीं ? मैं बतलाता हूँ-
आप एक बार अपने आपको बहू मानकर अपने हितों की कल्पना कीजिये, उस “बहूपने” को भरपूर जी लेने के बाद अब अपने आपको “सासपने” में स्थापित कीजिये और देखिये कमाल !
क्या हुआ ?
बदल गया न सब कुछ ?
सब कुछ बदल जाता है, बहू और सास के अधिकारों और कर्तव्यों की पूरी लिस्ट ही बदल जाती है, हालांकि हम तो वही एक हें, तब भी जब हमने अपने आपको बहू माना और तब भी जब हमने अपने को सास माना; तब यह परिवर्तन क्यों ?
एक बालक के लिए उसका खेलकूद ही सबकुछ है, वह एक पल भी व्यर्थ खोये बिना प्रतिपल मात्र खेलकूद में व्यस्त, मस्त रहता है क्योंकि उसके लिए तो अपना अभी का आनन्द और मनोरंजन ही सबकुछ हैउसे कल का चिंतन ही कहाँ है, पर जैसे ही उसे यह अहसास दिलाया जाता है कि “भाई ! यह बचपना ही सबकुछ नहीं है, तू सदाकाल मात्र बालक ही नहीं रहने वाला है, तेरे सामने सारी जिन्दगी पडी है, यदि तू अपना समय खेलकूद में ही बर्बाद करता रहेगा और पढाई-लिखाई नहीं करेगा तो अनाडी ही रह जाएगा और जीवन भर मजदूरी करके कष्ट उठाएगा. यदि जीवन में कुछ बनना है तो पढाई-लिखाई में ध्यान दे !”
जैसे ही उस बालक को यह अहसास हो जाता है कि मैं बालक नहीं वरन 60-80 या 100 साल तक ज़िंदा रहने वाला मनुष्य हूँ तो अब उसकी गतिबिधियाँ, दिनचर्या और जीवन बदल जाता है. अब वह मौजमस्ती और खेलकूद छोड़कर नीरस पढ़ाई में जुट जाता है ताकि उसका (60-80 या 100 साल का) यह (भावी) जीवन खुशहाल हो सके.
इस प्रकार हम देखते हें कि किस तरह “मैं” की परिभाषा बदलते ही सबकुछ बदल जाता है.
कल तक वह अपने आपको बालक मानता था तो अपने “आज” की मस्ती में रहता था, अब जब वह अपने को “मनुष्य” मानने लगा तो मनुष्य जीवन में ऐश्वर्य और सुख पाने के लिए पढने-लिखने में जुट गया, सम्पूर्ण मनुष्य जीवन के हित के लिए मात्रआज के हितों को तिलांजलि देदी.
क्यों ?
क्योंकि अब उसका विचार है कि यह बचपना तो जाने वाला है, पर मैं तो तब भी रहूंगा इसलिए में बालक नहीं हो सकता, मैं तो मनुष्य हूँ, यह बचपना चला जाएगा, यौवन आयेगा चला जाएगा, प्रौढावस्था आयेगी और चली जायेगी, पर मैं तो तब भी रहूँगा इसलिए मैं बालक,युवक या प्रौढ़ नहीं , मैं तो मनुष्य हूँ जो सदा रहूँगा.” यह जानकार व मानकर अब यह अपने आज में अधिक नहीं रमता है, वल्कि अत्यंत संक्षेप में अपनी आजकी अपरिहार्य जरूरतों की पूर्ति करके फिर अपने सम्पूर्ण मनुष्य जीवन के विकास और सुखसुविधा के कामों में जुट जाता है.
अब एक प्रश्न फिर उठता है कि क्या मैं बस मनुष्य हूँ या कुछ और ? क्या मैं सदाकाल ही मनुष्य ही रहूँगा ?
आज से १०० साल बाद जब मैं मनुष्य नहीं रहूँगा तब क्या मैं ही नहीं रहूँगा ?
आज से १०-२० साल पहिले भी जब मैं मनुष्य नहीं था, तब भी क्या ”मैं” नहीं था ?
यदि था तो क्या था ? आखिर मैं हूँ कौन ?
यदि मैं अपने आपको मनुष्य मानकर सम्पूर्ण मानव जीवन के हित के लिए अपने आज की सुखसुविधा और मौजमस्ती को तिलांजलि दे सकता हूँ तो क्या अपने आगामी अनंतकाल के हित के लिए इस मानवजीवन की आज की मौजमस्ती नहीं छोड़ सकता ?
पर इसके लिए संशय रहित होकर द्रढ़तापूर्वक यह तय करना होगा कि “आखिर मैं हूँ कौन”
जानने के लिए पढ़िए नवमी क़िस्त, आगामी अंक में. क्रमश:-

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