धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (दशबीं क़िस्त, गतांक से आगे)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
पिछले अंक में हमने पढ़ा – “जब “मैं” की परिभाषा हमारे ऊपर इतना बड़ा प्रभाव डालती है तो क्या हमारे लिए यह सबसे महत्वपूर्ण और अत्यंत आवश्यक नहीं कि हम तुरंत ही अपनी “मैं” की दोष रहित, निर्विवाद परिभाषा, खोजें, समझें और स्थापित करें” अब आगे पढिये-
हमारा अपने आप को न पहिचानना और मेरी अपनी “मैं” की परिभाषा सुनिश्चित और सुपरिभाषित न होना हमें अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में भी किस प्रकार हास्यास्पद स्थिति ला खडा करता है, यह हम एक उदाहरण से समझ सकते हें.
जब हम एक बस स्टाप पर खड़े बस के आने का इन्तजार करते हें और बस ठसाठस भरी होने के कारण बसस्टाप पर रुकती नहीं, तब हम बडबडाते हें कि “यह क्या है ? कुछ भी क्यों न हो, बस रुकनी तो चाहिए न.”
फिर एक बस आकर रुकती है, भरी हुई; अनेकों लोग उसमें घुसने के प्रयास में एकदूसरे को धकिया रहे हें जिस कारण कोई भी प्रविष्ट नहीं हो पारहा है. तब हम आबाज लगाते हें –
“ आगे बढ़ो, जल्दी करो, पीछे और भी लोग हें, सभी को जाना है, किसी को यहाँ नही रहना है , सब लोग कबसे खड़े हें ? अन्दर कितनी जगह पडी है, कोई आगे क्यों नहीं बढ़ता है ? कंडक्टर लोगों से कहो, आगे बढ़ें, कोई अपने स्थान से हिलता क्यों नहीं, सब सिर्फ अपनी-अपनी सोचते हें, कोई दूसरों का क्यों नहीं सोचता है ? “
हमारे प्रयास व्यर्थ नहीं जाते हें और किसी तरह हम एक हाथ से बस के दरबाजे का हत्था पकड़कर लटकने में सफल हो जाते है. बस ! फिर क्या ? अब एक क्षण में ही हमारे स्वर बदल जाते हें –
हम आतुरता भरी कड़क आबाज में पुकार उठते हें “ कंडक्टर ! घंटी क्यों नही मारते हो, बस चलाते क्यों नहीं ? अब और कितने लोगों को भरोगे, कोई जगह दिख रही है क्या तुम्हें ? लोग दरबाजे पर लटक रहे हें. हम भी आदमी हें कोई जानवर नहीं. हमसे भले तो जानवर हें, कमसेकम प्रत्येक वाहन के लिए उनकी संख्या तो निश्चित है, यहाँ तो बस ये भरते ही जाते हें, भरते ही जाते हें, कुछ सोचते ही नहीं. और हाँ ! अब आगे किसी स्टाप पर बस मत रोकना, इसमें जगह ही कहाँ है ?“
ऐसा नहीं कि हमारा यह व्यवहार मात्र आज है, यही कल तक होता था, यही कल फिर होगा, कल भी यही क्रम फिर दुहराया जाएगा. बेहिचक, बेझिझक.
कभी-कभी हमारे मन में यह शिकायत पैदा होती है कि “ कोई हमारी सुनता क्यों नहीं, मानता क्यों नहीं; हम चीख रहे हें, आबाज लगा रहे हें, किसी पर कोई असर क्यों नहीं होता है ?”
मैं पूंछता हूँ कि तुम ही कब अपनी बात पर टिकते हो, जो कोई तुम्हारी बात माने ?
आखिर कोई तुम्हारी कौनसी बात माने, पहिलेवाली या बाद वाली ?
तुम्हारी कौनसी बात सत्य है, कौनसी बात अंतिम है, कौनसी बात ऐसी है जो अब कभी नहीं बदलेगी ?
पहिले तुम स्वयं तो यह तय करलो कि तुम अपनी कौनसी बात किसी से मनबाना चाहते हो, फिर वह सोचेगा कि तुम्हारी बात सुनी और मानी जाये या नहीं.
जिस प्रकार कोई शराबी शराब के नशे में कुछ भी प्रलाप क्यों न करता रहे, कोई उसपर ध्यान नहीं देता है क्योंकि सब जानते हें कि – “यह ये नहीं इसकी शराब बोल रही है, विवेक नहीं नशा बोल रहा है. नशा उतरते ही यह स्वयं बदल जाएगा, यह स्वयं ही अपनी इन बातों पर कायम नहीं रहेगा, इसलिए यह बातें ध्यान देने योग्य नहीं हें.”
ठीक इसी प्रकार हम जो बातें अपने क्षणिक स्वार्थ से प्रेरित होकर करते हें वे किसी पर कोई भी प्रभाव नहीं छोडती हें, क्योंकि सभी यह जानते-समझते हें कि ये आप नहीं आपका क्षणिक स्वार्थ बोल रहा है, और आपका स्वार्थ सिद्ध होते ही आपके विचार, वक्तव्य और व्यवहार सबकुछ बदल जाएगा. ठीक उसी शराबी की तरह.
वाह ! क्या इज्जत कमाई है हमने. पर सही भी तो है, नशे में सिर्फ वही तो नहीं, हम सब भी तो हें. हम सभी ने तो अनादिकाल से महामोह की हाला का सेवन किया है और उसी के प्रभाव में झूमते हुए संसार में परिभ्रमण कर रहे हे. हमने कब अपने स्वरूप का विचार और निर्णय किया, अपने आप को जाना और पहिचाना.
बस हमारा यही चरित्र हमें अविश्वसनीय बनाता है .
क्या हमारा यह व्यवहार हास्यास्पद नहीं ?
तब क्यों किसी को यह सब विचित्र नहीं लगता है ? क्योंकि सब ही तो ऐसे ही हें.
क्यों होता है हमारे व्यवहार में यह परिवर्तन; वह भी मात्र पलभर में ?
मात्र हमारी “ मैं “ की परिभाषा में परिवर्तन के कारण.
जब हम बस के इन्तजार में स्टाप पर खड़े थे तब अपने आप को “प्रतीक्षार्थी” मान रहे थे इसलिए हमारा सोच, हमारा व्यवहार प्रतीक्षार्थी के हित में था, बस पकड़ते ही हमारी “मैं” की परिभाषा बदल गई, तदनुरूप हमारी हैसियत बदल गई, हित बदल गए. बस में प्रविष्ट होते ही हम “बसयात्री” हो गए “सवारी” हो गए और इसलिए सोच बदल गई व व्यवहार में परिवर्तन हो गया.
कितनी तीव्रता से होता है यह सब, हम कितने जल्दी बदल जाते हें; मात्र पलभर में ! हमें अहसास भी नहीं होता है कि यह हमारा दोगलापन (hybridism,illegitimacy) है. यह सब हमारे साथ बार-बार घटित होता है, कदम-कदम पर, दिन-प्रतिदिन, पल-प्रतिपल.
आखिर हम बदल क्यों जाते हें ?
क्योंकि हमारा कोई सुनिश्चित मत है ही नहीं. हमारी किसी भी मान्यता पर हमें विश्वास ही नहीं है. अपने स्वरूप के बारे में हमारा कोई अंतिम निर्णय ही नहीं है. न तो हमने कभी इसके महत्व को पहिचाना और न ही यह जानने-समझने का प्रयास ही किया.
आत्मकल्याण के लिए तो यह जरूरी है ही कि हम अपने स्वरूप का निर्धारण करे, अपनेआप को जाने-पहिचानें किन्तु जगत में भी प्रामाणिक जीवन जीने और अनुकरणीय बनने के यही जरूरी है.
अगले अंक में पढ़िए – “ कदम-कदम पर मुझे दिए जाने वाले नाम क्यों प्रासंगिक नहीं हें और “मैं” की परिभाषा रचने का आधार क्या होना चाहिए. क्रमश:-
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