धर्म के दशलक्षणों में प्रथम -
(1) उत्तम क्षमा धर्म -
इसी आलेख से -
- "अन्य को क्षमा करके हम निर्भार होजाते हें और क्षमा मांगकर निर्भय"
- "क्षमा के अभावरूप क्रोध और बैर किसी अन्य को नहीं वरन हमें ही अशांत करता है, हमें ही जलाता और तड़पाता है.
जिस प्रकार जलते हुए कोयले किसी को तपायें या न तपायें स्वयं तो जलकर राख हो ही जाते हें."
उत्तम क्षमा
निज आत्मा को भूल जाना क्रोध है
अन्य को ना भूल पाना क्रोध है
स्वतंत्र हें सब द्रव्य जग में,अन्य के कर्ता नहीं
किसी को भी अन्य का कर्ता बताना क्रोध है
द्रष्टि को पर से हटा, स्थापना निज आत्म में
अनंत गुण पर्याय वाला, स्वयं ही परमात्म मैं
मैं नहीं कर्ता किसी का, ना किसी का कर्म मैं
जानकर निर्लिप्त होना, उत्तम क्षमा है धर्म है
पद्यों का भावार्थ -
अनादिकाल से हमने अपने आत्मा की सुध नहीं ली यही हमारा आत्मा (अपने आप ) के प्रति अनन्तानुबन्धी क्रोध है.
हम परपर्दार्थों को अपना कर्ता (अनिष्ट कर्ता) मानते रहे और इसलिये उनपर क्रोध करते रहे, उन्हें भूल नहीं सके, उनसे बदला लेने का संकल्प करते रहे, उनके प्रति हमारी यही कर्ता बुद्धी उनकी स्वतंत्रता का घात है और हमारा अनन्तानुबन्धी क्रोध है.
अनन्त गुणों के स्वामी इस आत्मा का (अपना ) अकर्ता स्वभाव पहिचानकर परपर्दार्थों से निरपेक्ष हो जाना, उनसे अलिप्त होजाना उतमक्षमा धर्म है.
अन्य को क्षमा करके हम निर्भार होजाते हें और क्षमा मांगकर निर्भय.
सबको क्षमा करदेने से हम बदला लेने के भार से मुक्त होकर निर्भार होजाते हें, तत्संबंधी आकुलता से बच जाते हें.
सबसे क्षमा मांगने /पा लेने से शत्रु /शत्रुता खत्म हो जाती है, कोई शत्रु न रहने से हम निर्भय हो जाते हें.
क्षमा के अभावरूप क्रोध और बैर किसी अन्य को नहीं वरन हमें ही अशांत करता है, हमें ही जलाता और तड़पाता है.
जिस प्रकार जलते हुए कोयले किसी को तपायें या न तपायें स्वयं तो जलकर राख हो ही जाते हें.
हमारी कषाय या हम स्वयं किसी अन्य का तो कुछ बिगाड़ ही नहीं सकते हें, कुछ भी भला या बुरा कर ही नहीं सकते हें. उसका भला या बुरा होना तो उसके कर्म के उदय के आधीन है.
यदि उसके शुभकर्मों का उदय हो तो हम उसका बुरा कैसे कर सकते हें? यदि हम ऐसा कर पाए तो उसके शुभकर्मों का क्या होगा ?
क्या उसके कृत्य निष्फल नहीं हो जायेंगे ?
यदि ऐसा हो सके तो क्या यह वस्तुस्वभाव के विरुद्ध नहीं होगा ?
क्या वस्तुस्वभाव में ऐसी अनीति संभव है ?
नहीं ! कदापि नहीं !!
इस प्रकार हम पाते हें कि क्षमा धारण करना स्वयं हमारे लिए हितकर एवं सुखकर है. यह हमारे ह्रदय में धधक रही क्रोध की ज्वाला को शांतकर हमें ही उसके आताप (तपन)से बचायेगी .
हमारा क्षमा धारण करना, किसी अन्य के ऊपर हमारा अहसान या उपकार नहीं है.
तब क्यों नहीं हम सभी क्षमा धारण करें ?
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इस सम्बन्ध में अधिक विस्तार के लिए लेखक का निम्नलिखित लेख पढने चाहिए -
क्षमा मांगने से तो आप मार्दव धर्म के धारी धर्मात्मा बन जाते हें ,और धर्म में शर्म कैसी ?
उक्त लेख पढने के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें -
http://parmatmprakashbharill.blogspot.in/2011/12/blog-post_3677.html
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