निम्न छंद के सन्दर्भ में मेरे मित्र अनेकांतजी ने अपेक्षा स्पष्ट करने का आग्रह किया है , वह निम्नानुसार है -
इसलिए ज्ञानी को निर्बंध कहा है
ना आश्रव ना बंध होता , सम्यक्त्व द्रष्टि जीव को
Anekant Kumar Jain apeksha bhi pragat kijiye,nahi to ye vakya ekant ho jayega
चाहे रहे निज आत्म में या , भोग में वो लिप्त हो
बंधन का कारण जीव को , अन्य ना , मिथ्यात्व है
यह उपदेश है जिनदेव का वा ,अनुभव से प्रत्यक्ष है
9 hours ago · ·
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पंडित जयचंदजी छाबडा लिखते हें -
ज्ञानी के अज्ञानमय भाव नहीं होते ,और अज्ञानमय भाव न होने से (अज्ञानमय) राग,द्वेष,मोह अर्थात आश्रव नहीं होते और आश्रव न होने से नवीन बांध नहीं होता है .इस प्रकार ज्ञानी सदा ही अकर्ता होने से नवीन कर्म नहीं बांधता है .
करणानुयोग की द्रष्टि से कहें तो ज्ञानी के होने वाला राग मात्र अल्प स्थिति अनुभाग वाला बंध ही करता है , ऐसे अल्प बंध को बंध न मानकर अनंत बंध की अपेक्षा से सम्यक द्रष्टि जीव को निर्बंध कहा है .
चौथे गुणस्थान (अविरत सम्यक्द्रष्टि ) में कर्मों की ४३ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है और बे ४३ प्रक्रतियां ही अनंत बंध का कारण हें , अविरत सम्यक द्रष्टि के जिन ७७ प्रकृतियों संबंधी बंध होता है वह अल्प स्थिति अनुभाग वाला होने से न होने के बराबर है , .इसलिए ज्ञानी को निर्बंध कहा है
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