तप को सभी बहुत अच्छा मानते हें .
पर तप करते क्यों नहीं ?
क्योंकि तप से डरते हें ?
क्यों ?
भ्रम वश !
भ्रम वश हम सभी तप को कष्टमय मानते हें , कष्टकर मानते हें .
साधारण कष्ट नहीं , भयंकर कष्ट मानते हें और इसलिए ही तप से बचने की कोशिश करते हें .
तप तो आनंदमय होता है , महान आनंद .
तप तो धर्म है और धर्म कष्टमय नहीं होता है , नहीं हो सकता है .
यदि कष्टमय हो तो धर्म कैसा ?
यदि धर्म में भी कष्ट हे हो तो फिर हमें धर्म की आवश्यकता ही क्या है ?
कष्टों से छुटकारा पाने के लिए और आनंद की प्राप्ति के लिए तो हम धर्म की शरण में जाते हें , यदि धर्म ही ( भी ) कष्टकर हो तो जैसा संसार वैसा ही धर्म , फिर धर्म से क्या लाभ ?
पर यदि तप (धर्म) आनंदमय है तो हमें यह कष्टकर क्यों दिखाई देता है ?
क्योंकि न तो हम तप का स्वरूप जानते हें और न ही यह जानते हें क़ि कष्ट किसे कहते हें और आनंद किसे कहते हें ?
हमने तो तप की परिभाषा ही यह बना रखी है क़ि शरीर को तपाना ( कष्ट देना ) इसका नाम तप है .
अरे भाई ! तप तो धर्म है , आत्मा का धर्म .
शरीर आत्मा नहीं है , शरीर अपना नहीं है , शरीर मैं नहीं हूँ .
तब शरीर को तपाना , कष्ट देना यह आत्मा का धर्म कैसे हो सकता है ?
यदि शरीर के एकोई भी क्रिया आत्मा का धर्म हो जाए , तब शरीर के सहयोग के बिना धर्म संभव ही नहीं तरह जाएगा , तब तो धर्म पराधीन हो जाएगा .
पराधीनता कभी धर्म नहीं हो सकती , कभी धर्म का कारण नहीं हो सकती , कभी धर्म का फल भी नहीं हो सकती .
धर्म तो स्वाधीन है , स्वाधीनता के लिए है .
तब फिर क्या है तप ? क्या है तप धर्म ?
वह तप , जो आत्मा का धर्म है , वह तप जो स्वयं आनंद मय है , वह तप जो आनंद का कारण है , सच्चे और अखंड आनंद का , सदाकाल के लिए आनंद का .
तप का स्वरूप क्या है ?
तप की प्रक्रिया क्या है ?
तप का फल क्या है ?
अगली किसी पोस्ट में पढ़िए
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