Monday, November 28, 2011

अरे ! तू यह दोगलापन कब छोड़ेगा ? ये दोहरे पैमाने सज्जनों को शोभा नहीं देते .


हम तो मात्र राग के कर्ता हें सो हमने कर लिया और काम का होना या न होना हमारे बस में नहीं है , उसका परिणमन स्वतंत्र है .



(better explained)
क्या  यह  विचित्र  बात  नहीं  है  क़ि  जो काम अपने मन के अनुकूल होता है उसके बारे में हम कहते हें क़ि "मैंने यह किया -वह किया" .
उसके कर्तापने का  पूरा श्रेय हम खुद ले लेते हें.
जो काम हमारे मन के अनुकूल नहीं होता उसके बारे में हम कहते हें "ऐसा हो गया-बैसा हो गया "
यहाँ "किया" नहीं , "हो गया".
अरे ! हो कैसे गया ?
तू तो था न ?
तूने क्यों होने दिया ?
यदि तेरे करे ही सब होता है तो तूने यह क्यों होने दिया ?
यदि तुझसे कुछ नहीं होता है तो फिर अच्छा काम तूने कैसे किया ?
अरे ! तू यह दोगलापन कब छोड़ेगा ?
ये दोहरे पैमाने सज्जनों को शोभा नहीं देते .
दरअसल तो हम बहुत ही पुण्यहीन हें और इसलिए ऐसे बहुत कम ही काम होते हें जो हमारे मन के अनुकूल हों पर फिर भी हमारा कर्तापने का भ्रम टूटता नहीं है, और हजारों में से एक काम हमारे मन का हो जाये तो हम फूले-फूले फिरते हें .
यह़ी कारण है क़ि गहरी कर्ता बुद्धी छूटती नहीं है .
उक्त दोनों ही स्थिति में फर्क क्या रहा ?
काम तो जो होना था सो ही हुआ.
फर्क रहा मात्र अपने राग का, अपने इरादे का .
जो काम हम करना चाहते थे और हो गया हम उसका कर्ता अपने को मानते हें और जो हमारी इक्षा के बिना या विपरीत हो गया उसका कर्ता हम अपने को नहीं मानते हें .
हालाँकि किया हमने ही,पर मन के अनुकूल नहीं हो पाया.
हम बनाना कहते थे घोड़े का चित्र पर बन गया गधे का, तो किया तो हमने ही ,विधी तो एक ही संपन्न हुई है तब भी  यदि घोडा बन जाता तो हमने बनाया ,गधा बन गया तो बन गया.
यानि क़ि फर्क है मात्र अपने राग का, अपनी इक्षा का ,घोडा बनाने की अपनी इक्षा थी ,राग था , गधा बनाने का नहीं , बाकी सब कुछ समान था .
इसलिए हम कह सकते हें क़ि हम तो मात्र राग के कर्ता हें सो हमने कर लिया  और काम का होना या न होना हमारे बस में नहीं है , उसका परिणमन स्वतंत्र है .

-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

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