१६.९.८६
पुराने कागजों को पलटते हुए एक पुरानी अधूरी रचना मिल गई , जैसी की तैसी प्रस्तुत है -
आकांक्षाओं का प्रतीक (कहानी)
काश मैं तुम्हें विशवास दिला पाती तरुण ! क़ि मैं बैसी नहीं जैसाकि तुम मुझे समझ रहे हो .
ऐसा नहीं है क़ि मैं तुम्हारे या मेरे भतीजों को प्यार नहीं करती , या क़ि उन्हें गैर समझती हूँ .
मैं भी उन्हें बेटों का ही प्यार देती आई हूँ और उनसे माँ का सा सम्मान भी पाती रही हूँ , पर मेरे अपने बच्चों की चाह आज मेरी आकांक्षाओं की प्रतीक बन गई है .
यदि मेरे स्वयं के भी बच्चे होते तो तुम यह कभी न समझ पाते क़ि मैं अपने बच्चे और अन्यों में कोई फर्क भी महसूस करती हूँ क्योंकि अभी शिशुओं में विद्यमान कोमलता , चंचलता , सरलता और नादानी मुझे समान रूप से आकर्षित करती है , पर मेरे अपने बच्चों की कमी ने मेरा समस्त आकर्षण " शिशु " से हटाकर " मेरे अपने " पर केन्द्रित कर दिया है , जिसे तुम मेरी संकीर्णता समझ बैठे हो .
वास्तविकता तो यह है क़ि अपने बच्चे से अधिक आवश्यकता तो मुझे अन्य कई ऐसी वस्तुओं की है जिनके बिना मैं मेरे अस्तित्व की कल्पना ही नहीं कर सकती , जैसे क़ि हवा, पानी , प्रकाश , भोजन , कपडे , मकान , परिवार , समाज और सबसे बढ़कर तुम स्वयं . पर वे सब वस्तुएं तो मुझे उपलब्ध ही हें अत: मेरे आकांक्षाएं उन सब पर से फिसलती हुई अपने शिशु पर आ टिकी हें , मातृत्व मेरे जीवन का ध्येय बन गया है .
यद्यपि ऊपरी तौर पर तुम्हें ऐसा महसूस होता है तथापि मैं दाबे के साथ कह सकती हूँ क़ि मातृत्व के प्रति मेरा यह आकर्षण किसी अन्य सामान्य स्त्री की अपेक्षा कतई विशेष नहीं है , तथापि उनकी अनुपस्थिति ने मेरी उस सहज सी आकांक्षा को उभार कर प्रस्तुत कर दिया है .
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