Thursday, July 19, 2012

--------------अनजाने ही नफरत करना हमारे व्यक्तित्व का अंग बन चुका है . हमारे sub conscious mind में अन्य सभी लोगों के प्रति एक अजीब सी नफरत भरी हुई है ------हम बिना किसी कारण के ही हर अजनबी से असहयोग का ( शत्रुतापूर्ण ) व्यवहार करते हें -----------------------------------क्या हमारी यह असहयोग वृत्ति क्या उन सभी लोगों के प्रति हमारा द्वेष भाव नहीं है जो अव्यक्त में ही हमारे व्यक्तित्व का अंग बन गया है ? क्या हमारे अन्दर निरंतर पल रहा यह द्वेष भाव हमें निरंतर पाप का बंध नहीं करता रहता है ? हम क्यों नहीं विचार करते हें क़ि हमारे इन भावो का फल क्या होगा ?-


यूं तो हम प्रेम को धर्म और नफरत को पाप मानते हें पर अनजाने ही नफरत करना हमारे व्यक्तित्व का अंग बन चुका है .
हमारे sub conscious mind में अन्य सभी लोगों के प्रति एक अजीब सी नफरत भरी हुई है . इसका प्रमाण तब मिलता है जब हम बिना किसी कारण के ही हर अजनबी से असहयोग का ( शत्रुतापूर्ण ) व्यवहार करते हें .
अब देखिये न ! हम बस या ट्रेन में मुसाफिरी कर रहे हें और दरबाजे पर खड़े हवा का आनंद ले रहे हें , ट्रेन स्टेशन पर रुकती ही और नये यात्री उस पर चड़ना चाहते हें तब हम अनायास ही दरबाजा ब्लोक करने लगते हें .
अब आप ही बतलाइये क़ि हमारी उन लोगों से क्या शत्रुता थी ?
न तो हम उन्हें जानते हें और न बे हमें .
उन्होंने हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा था .
बे जो ट्रेन में चड़ने का प्रयास कर रहे थे उसमें हमारे विरुद्ध कुछ नहीं था , बे तो मात्र हमारी और सभी की तरह ही अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर रहे थे .
तब हम क्यों नहीं उनका सहयोग करते हें , क्यों उनका विरोध करने का प्रयास करते हें ?
ऐसा भी तो हो सकता था क़ि हम अपना हाथ आगे बढ़ाकर उनका हाथ थाम लेते और उन्हें चड़ने में मदद करते , थोड़ा साइड में हट जाते और उनके लिए जगह बना देते .
अब इसी तरह हम मानो पार्क में किसी बेंच पर बैठे हें या ट्रेन की बेंच पर ही सही , तब कोई अन्य व्यक्ति थोड़ी और जगह की चाहत में थोड़ा हिलता डुलता है तो यकायक हम सक्रिय हो उठते हें उसे रोकने के लिए .
अब क्या फर्क पड़ जाता यदि हम इंच - 2 इंच जगह और उसे दे देते और उसे शुकून मिल जाता ?
हम कार चला रहे होते हें , पीछे से आरही कोई कार अगर आगे निकलना चाहती है और हमसे साइड मांग रही है तो हम उसके मार्ग में आड़े आ जाते हें , उसे आगे निकलने ही नहीं देना चाहते हें .
आखिर क्यों ?
उसने हमारा क्या बिगाड़ा है ?
वह न तो हमारा शत्रु है और न ही competitor  . दर असल हम तो उसे जानते तक नहीं और न ही बो हमें .
अब कौन जाने उसकी क्या मजबूरी होगी या क्या जरूरत होगी क़ि उसे तेजी से आगे जाना है , हो न हो किसी के जीवन - मरण का सबाल हो .
क्यों नहीं हम उसे आगे निकालने देना चाहते हें ? आगे बाले को कोई तमगा नहीं मिलने बाला है , यूं भी सेकड़ों कारें पहिले ही हमसे आगे चल ही रही हें , तब एक और सही .
पर नहीं , हम ऐसा नहीं कर पाते हें .
इसी तरह के अन्य अनेकों प्रसंग हमारे जीवन में कदम कदम पर उपस्थित होते ही रहते हें .
अब हम ज़रा विचार करें क़ि क्या हमारी यह असहयोग वृत्ति क्या उन सभी लोगों के प्रति हमारा द्वेष भाव नहीं है जो अव्यक्त में ही हमारे व्यक्तित्व का अंग बन गया  है ?
क्या हमारे अन्दर निरंतर पल रहा यह द्वेष भाव हमें निरंतर पाप का बंध नहीं करता रहता है ?
हम क्यों नहीं विचार करते हें क़ि हमारे इन भावो का फल क्या होगा ?
एक बात और ! 
हमारी यह द्वेष वृत्ति , हमारा यह अपराध मात्र उस एक व्यक्ति के प्रति नहीं है जो हमारे सामने खडा है , उसे तो हम जानते तक नहीं हें .
यह तो सम्पूर्ण मानवता के प्रति है , हमारे सामने जो भी आयेगा हम उसका रास्ता रोकेंगे , इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क़ि वह कौन है .
इस तरह हम सम्पूर्ण मानवता के विरुद्ध हें , इसलिए यह साधारण बात नहीं बड़ा अपराध है .
क्या आप जानते हें क़ि हमारी इस वृत्ति का परिणाम क्या है ?
जैसी यह हमारे वृत्ति है ऐसी ही वृत्ति सभी की है ,सभी अन्य लोगों के प्रति इसी तरह का व्यवहार करते हें , इसका परिणाम यह होता है क़ि जब हम कुछ भी करते हें तब हम एकदम अकेले एक दम अलग थलग पड़ जाते हें और हमारे विरुद्ध यह पूरी दुनिया मिलकर दूसरी ओर खड़ी हो जाती है , ऐसे में भला हम सुखी कैसे रह सकते हें ,शुकून से कैसे रह सकते हें ?
इसकी जगह क्या ऐसा नहीं हो सकता था क़ि दुनिया में सभी एक दूसरे के प्रति मित्रता और सहयोग का व्यवहार करते तब हम सभी का मन भी सदा ही प्रफुल्लित रहता और हम निरंतर पुन्य का बंध भी करते और साथ ही साथ हम सभी को अपने चारों ओर सभी सहयोगी ही सहयोगी दिखाई देते , संकट में कोई अपने आप को अकेला महसूस नहीं करता .
क्या अब भी ऐसा नहीं हो सकता है ?
क्यों नहीं !
आवश्यकता है अपने स्वभाव को बदलने की .

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