Wednesday, October 10, 2012

उसने मुझे आधा ग्लास दूध दिया था पीने को . आज अचानक ही मुझे यह बात याद आ गई . मेरा मन वितृष्णा से भर उठा है . आधा ग्लास ? सिर्फ आधा ?

उसने मुझे आधा ग्लास दूध दिया था पीने को .
आज अचानक ही मुझे यह बात याद आ गई .
मेरा मन वितृष्णा से भर उठा है .
आधा ग्लास ? सिर्फ आधा  ?
अरे ! उस " लक्कड़ हजम - पत्थर हजम उम्र में " , सिर्फ आधा ग्लास ?
मैं करोड़ों की जायजाद का मालिक , लाखों रोज कमाने वाला , रोज सेकड़ों लोग जिसके आगे - पीछे घूमते हें और १०-२० लोग जिसकी कृपा द्रष्टि पर ही पलते हें .
अरे आज मैं वह , जो रोज १०-२० लोगों के साथ ही भोजन करता है , उसे मात्र आधा ग्लास दूध ?
क्या सोचकर दिया था उसने मुझे आधा ग्लास दूध ? उसे लज्जा नहीं आई ?
और मैं भी बस मैं ही हूँ , उसे तो लज्जा नहीं आई , पर मैंने ही क्यों स्वीकार कर लिया ?
ठुकरा तो नहीं सकता था , न सही ; यही कह देता की अभी इक्षा नहीं है , पीकर आया हूँ , या कुछ भी .
अरे ! मेरी बुद्धी पर भी पत्थर ही पड़ गए थे , आखिर बच्चा ही तो था न , १०-१२ बर्ष का , उस उम्र में अक्ल ही कितनी होती है ? पर अब मैं तो जैसा हूँ सो हूँ , पर उसे तो कुछ सोचना चाहिए था ! 
इतने बड़े शरीर पर उसका बो आधा ग्लास दूध कहाँ लगेगा ? 
उस दिन तो पता नहीं मुझे भी क्या हो गया था , इस पर भी मैं कितना अभीभूत था , कितना कृतज्ञ था उसके उस अनुग्रह के प्रति .
सचमुच नादान ही था मैं , जो लोगों के छोटे - छोटे , तुच्छ से प्रेम प्रदर्शन पर मर मिटता था , ऐसे सभी लोग मुझे अपने सच्चे शुभचिंतक और मित्र  नजर आने लगते थे .
अब आज समझ में आता है कि उस सब में था क्या ? 
किसी ने प्रेम से बात करली , कोई छोटी-मोटी सलाह दे डाली , सहज ही कोई साधन जुटा दिया , ऐसी कोई चीज जो उनके काम नहीं आ रही थी और मुझे उसकी जरूरत थी तो उन्होंने मुझे दे दी , कभी कभार कोई १००-५० रूपये की मदद करदी ; इन सब में क्या बड़ी बात है ?
अब कोई खाना खाने बैठा था और मैं पहुँच गया तो मुझे भी खाना खाने को बिठा लिया , इसमें क्या बड़ी बात है ?
अरे ! मैंने चार रोटियाँ खा ही लीं तो क्या फर्क पड़ गया ? कोई मेरे लिए तो बनाई नहीं थीं स्पेशल . जैसी चार -पांच लोगों के लिए १०-१२ रोटियाँ बननी थीं तो साथ में ४-६ और सही .
इसमें ऐसा क्या महान योगदान हो गया कि मैं उन पर मर ही मिटूं ?
पर मुझमें इतनी बुद्धी ही कहाँ थी ?
अरे ! ये १०-२० बार खाना खिला देने से या आधा ग्लास  ढूध पिला देने से क्या होने वाला था ? क्या मेरी जिन्दगी कट जाती इससे ?
यदि उन्हीं कुछ करना ही था , यदि वे मेरे सच्चे शुभचिंतक ही थे तो दिला देते एकाध मकान , खुलबा देते कोई दूकान , या कहीं कोई बढ़िया सी नौकरी ही दिलबा देते .
उनके पास न तो पैसे टके की कोई कमी थी और न ही जान पहिचान की , कोई उनकी बात टाल भी नहीं सकता था , पर यह सब तो किया नहीं बस मीठी मीठी बातों में ही बहलाते रहे .
बहुत देखे हें ऐसे !
बहुत हुआ बस ! 
अब तक बहुत भगवान् बनाकर अपने सर पर बिठाया है मैंने ऐसे लोगों को ; पर अब मैं बच्चा नहीं रहा कि एक लालीपाप में वहल जाउंगा .
हर चीज की एक कीमत होती है , निश्चित और सीमित .
उन्होंने जीवन में मुझे जितना ढूध पिलाया होगा उतना तो मेरे यहाँ हर दिन नाले में बह जाता है और जीवन भर में उन्होंने जितनी रोटियाँ खिलाई होंगी उतनी रोटियाँ रोज मेरे यहाँ कुत्तों को डाल दी जाती हें .

वह बिना सांस लिए यह सब बोलता ही जा रहा था , रुकने का नाम ही न लेता था कि मैं भी कुछ भी बोल सकूं .

( इस तरह की बातें हम रोज ही अपने आसपास देखते और सुनते हें , मैं तहेदिल से मानता हूँ कि सब बातें सही ही होती हें , यानी कि सचमुच हुआ वही होगा जो कहा जा रहा है , घटनाक्रम अक्षरश: वही रहा होगा जो कहा जा रहा है पर मैं पूरी द्रढ़ता के साथ कह सकता हूँ कि ये बातें यथार्थ का बयान नहीं करती हें , ये सत्य पर प्रकाश नहीं डालती हें , ये सत्य को स्पर्श तक नहीं करती हें .  
क्यों ?
क्योंकि यह बातें सही परिपेक्ष्य में नहीं कही जा रही हें , सही सन्दर्भ में नहीं कही जा रही हें .
ये बातें तत्कालीन परिस्तिथियों को , वातावरण को और प्रत्येक पात्र की तत्कालीन हैसियत पर प्रकाश नहीं डालती हें और इसलिए असंगत हो जाती हें .
यह तो बैसा ही है कि कोई ४० साल की उम्र का व्यक्ति वह झबला लोगों को दिखाए जो उसकी पहिली बर्षगाँठ पर उसके किसी संबंधी ने उसके अभिभावकों को भेंट किया था और अब उस देने बाले को और उसकी भावना और बुद्धी को कोसे कि यह क्या दिया है , क्या मैं इस लायक हूँ ?
इसकी बिषद (विस्तृत) व्याख्या मैं फिर करूंगा )

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