Wednesday, March 6, 2013

यदि किसी से एक बार कोई गलती हो गई तो वह अंतिम सत्य तो नहीं है न ? वह बदल भी तो सकता है न ?

जो अच्छा है सो तो अच्छा ही है और जो बुरा है सो बुरा ही है .
जो सही है सो सही है और जो गलत है सो गलत .
अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा या गलत को सही और सही को गलत तो नहीं कहा जा सकता है न ?
आखिर कोई ऐसा करे भी क्यों ?
गलतियां तो अच्छों अच्छों से हो जाती हें .
कुछ लोगों को अपनी गलती जल्दी समझ में भी आ जा और वे उसे सुधार भी लेते हें पर कुछ लोग अपने गलती नहीं भी समझ पाते हें .
प्रश्न तो यह है कि क्या अन्य सभी लोग किसी की गलती पर एक जैसा ही रिएक्ट करते हें ?
नहीं , विल्कुल नहीं !
कुछ लोग तो विल्कुल भी ध्यान नहीं देते , बात को पूरी तरह आई गई कर देते हें और वहीं दूसरी और कुछ लोग बड़ी तीव्र पर्तिक्रिया व्यक्त करते हें .
ऐसा भी नहीं है की जो लोग गहरी प्रतिक्रया व्यक्त करते हें वे सदा ही और सभी के साथ ऐसा ही करते हें , एक ही व्यक्ति कभी किसी व्यक्ति के साथ बहुत गहरी प्रतिक्रया व्यक्त करता है और कभी या किसी व्यक्ति के साथ कुछ भी क्यों न हो जाए विल्कुल सामान्य बना रहता है , या तीव्र प्रतिक्रया व्यक्त करने वाला भी कभी - कभी तो बड़ी जल्दी ही विल्कुल नोर्मल हो जाता है पर कभी - कभी जीवन भर के लिए ठान लेता है .
ऐसा क्यों होता है ? एक सी ही घटना के ऊपर इतना अलग -अलग व्यवहार कैसे ? किसलिए ?
किन बातों पर निर्भर करता है यह सब ?
स्पष्ट है की इस सब के लिए सिर्फ सामने वाले का व्यवहार ही जिम्मेबार नहीं है वल्कि हमारा अपना attitude भी जिम्मेदार है .
यह इस बात पर भे निर्भर करता है की हम कैसे हें या किसके साथ हम कैसे हें .
अकेले हम ही तो नहीं हें , और भी तो लोग हें . यदि वे सब शांत हें , कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते हें तो हम ही क्यों इतने अतिवादी होकर ऐसा करते हें ?
क्या हमसभी के साथ ऐसा करते हें ? यदि नहीं तो फिर सिर्फ इसी के साथ क्यों ?
जब हम किसी की नाचीज सी हरकत को भी बहुत बड़ा बना देते हें तब गलती करने वाला वह तो गलत है ही पर हम उस गलती का गलत मूल्याकन करके खुद भी तो गलत बन जाते हें , और जब हम गलत बन गए तो क्या हम भे यूस जैसे ही नहीं हो गए ?
क्या अब हमारे साथ भी वही व्यवहार नहीं होना चाहिये जैसा हम अन्य के साथ कर रहे हें न?
जब हमारा मन किसी ककडी के चोर को कटार मारने को करे तो विचार करना चाहिए की क्या हम हमेशा ही सभी के साथ ऐसा ही करते हें या ऐसा ही किया जाना पसंद करते हें . क्या ऐसा होना चाहिए ?
यदि नहीं तो हम ही क्यों किसी के साथ ऐसा करें ?
आखिर हर बात की कोई तो सीमा होती है , हमें कभी तो विराम लेना चाहिए न ?
यदि किसी से एक बार कोई गलती हो गई तो वह अंतिम सत्य तो नहीं है न ? वह बदल भी तो सकता है न ?
क्या यह उचित है की वह बदल जाए तब भी हम उसके प्रति न बदलें ?
कहीं ऐसा तो नहीं की हम ही कहीं गलत हें , हममें ही कोई गलती है ?
ज़रा विचार करें , विचार ही जीवन है .

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