यह आश्चर्यजनक है कि कथित धर्मात्मा लोग कुछ कथित चमत्कार दिखलाकर " बड़े धर्मात्मा " कहलाने के फेर में पड़े रहते हें।
सच तो यह है कि यदि चमत्कार हो तो वह धर्म के विरुद्ध ही होगा। क्यों ?
क्योंकि " वत्थु सहाबो धम्मो " अर्थात वस्तु का स्वभाव ही धर्म होता है , और चमत्कार उस चीज का नाम है जो वस्तु के स्वभाव् के विपरीत हो , क्योंकि जो स्वाभाविक है वह तो हमें चमत्कार लगता ही नहीं , आश्चर्यचकित करता ही नहीं है।
इस प्रकार जब चमत्कार ही धर्म के विरुद्ध है तो चमत्कार करने वाले धर्मात्मा कैसे हो सकते हें , वे तो अधर्मी हुए।
यूं तो चमत्कार तो कोई वस्तु ही नहीं है , यह तो जादू के खेल के ही सामान मात्र illusion ( द्रष्टि भ्रम ) हो सकता है।
दोष उनका नहीं , दोष तो हमारा है।
कोई जीवन भर कठोर आत्म साधना करे , कितने ही महान कृत्य करे , तब भी हमारा ध्यान उनकी ओर जाता ही नहीं पर यदि उनके नाम पर कोई चमत्कार जुड़ जाबे , झूँठा ही सही , जीवन में एकाध बार ही नहीं तो बस हम उस पर न्योचाबर हो जाने को तैयार बैठे हें।
भाई ! बाजार में दूकान तो उस माल की खुलेगी जो माल बिकेगा , जो माल बिकेगा नहीं उसकी तो खुली हुई दूकान भी बंद हो जाबेगी।
जो बाजार में बैठा है उसे तो दुकानदारी करनी ही पड़ेगी , वह तो दुकानदारी करेगा ही क्योंकि बाजार का तो नियम है , जिसकी दूकान नहीं चलेगी उसे तो दिवाला निकालकर बाजार से बाह रही होना होगा।
इसीलिये तो जिन्हें दुकानदारी नहीं करनी है ऐसे संत लोग तो जंगलों में जाकर साधना में लींन रहते हें
अब ऐसे लोगों के बारे में तो हम क्या कहें जिन्होंने कथित चमत्कारों को ही धर्म का पैमाना बना रखा है , यह तो ऐसे ही हुआ कि जो जितना अधिक कानून का उलंघन करे वह उतना ही बड़ा आदमी।
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