Wednesday, April 16, 2014

--- आजादी का संघर्ष किसी अन्य के विरुद्ध नहीं वरन स्वयं अपनी ही वृत्तियों के विरुद्ध होना चाहिए क्योंकि हम किसी और के नहीं वरन स्वयं अपनी ही वृत्तियों के गुलाम हें . तब किसी के प्रति उपेक्षा कैसी , द्वेष कैसा ?

आज के इस जागरूक युग में सभी लोग आजादी के दीवाने बने हुए हें , सभी को आजादी चाहिए , पर आजादी कहते किसे हें , हम किसके गुलाम हें और हमें कैसी आजादी चाहिए यह किसी को मालूम नहीं .

कोई किसी को गुलाम नहीं बनाता है और न ही बना ही सकता है . यह तो स्वयं हमारी ही मनोवृत्तियाँ हें जो कि हमें गुलाम बनातीं हें . हम में से ज्यादातर लोग स्वभाव से ही गुलामी की वृत्ति के लोग हें ; हम लोग स्वभाव से ही गुलाम हें .
क्या कहा ? आप यह मानने को तैयार नहीं हें ? अभी हो जायेंगे .
ज़रा अपने ह्रदय को टटोलिये ! क्या आपका व्यवहार दोनों ही परिस्थितियों में एक सामान ही रहता है , चाहे कोई आपको देख रहा हो या नहीं देख रहा हो ?
नहीं न ?
क्यों ?
ऐसा क्यों होता है कि अकेलेपन में हमारा आचरण और व्यवहार कुछ और होता है और जब कोई हमें देख रहा हो तो कुछ और ?
क्या हमेशा ही कोई हमें ऐसा करने को मजबूर करता है ?
नहीं ! कभी – कभी ऐसा हो भी सकता है पर हमेशा तो ऐसा नहीं होता है . तब क्यों किसी के सामने होने पर हमारा व्यवहार बदल जाता है , क्योंकि हम उसकी परबाह करते हें , बस ! यही परबाह करने की वृत्ति हमारी पराधीन वृत्ति है और पराधीनता को ही तो गुलामी कहते हें .
हमारे अन्दर पडी आशा , आकांक्षा और अपेक्षा की वृत्ति हमें दूसरों का मुंह ताकने को मजबूर करती है , उनकी अनुकूलता का व्यवहार करने को मजबूर करती है , उनको खुश करने के प्रयास करने को मजबूर करती है और उनकी खुशामद करने को प्रेरित करती है ; बस यही तो हमारी गुलामी की वृत्ति है .
यदि हमें किसी से कुछ नहीं चाहिए तो किसकी मजाल कि हमें अपना गुलाम बना सके ?
कहा भी है कि “ जिन्हें कछु नहीं चाहिए , ते नर शाहंशाह “
कभी – कभी (कभी – कभी ही नहीं वरन बहुतायत से) तो ऐसा होता है कि कुछ पाने के लिए नहीं पर मात्र इसलिए कि हमें जिन वस्तुओं की चाहत है वह किसी के पास हें , हम उनके प्रति अनुकूलता वरतने का प्रयास करते हें , यह जानते हुए भी कि हमें उनसे कुछ मिल नहीं सकता है .
जैसेकि हमें दौलत से प्यार है और बस इसीलिये हम दौलतमंदों की खुशामद में व्यस्त रहते हें या हमें सत्ता लुभाती है और इसलिए हम सत्ताबान लोगों के इर्दगिर्द मन्डराते रहते हें 
 क्या यह हमारी गुलामी की मानसिकता नहीं है ?
हम इतने नादान हें कि हम स्वयं ही उसकी गुलामी करने लगते हें जिनसे हमें कोई आशा होती है , चाहे किसी ने हमें कुछ भी देने का कोई आश्वासन दिया ही न हो , उसका ऐसा करने का कोई इरादा ही न हो और हमारा भी वह चीज उससे लेने का कोई इरादा न हो और हम यह बात जानते भी हों कि उससे कुछ मिलने वाला नहीं है . हमारी यह वृत्ति हमारे अन्दर छुपी हुई गुलामी की वृत्ति ही है जिसे हम स्वयं नहीं पहिचानते हें .
यदि हमें आज किसी से कुछ भी नहीं चाहिए हो तब भी क्यों हम जीवन भर इसी आशा में किसी की ( किसी की क्या , जमाने भर की ) गुलामी करते रहते कि जाने कब , किससे , क्या काम पड जाए ?
आप कह सकते हें कि क्या करें , अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए दूसरों पर आश्रित रहना ही पड़ता है .
आवश्यक्ता ?
कैसी आवश्यक्ता ?
भला आवश्यक्ता के बारे में हम जानते ही क्या हें ?
हमें पता ही नहीं कि आवश्यक्ता कहते किसे हें .
बस जिसके बिना जीवन ही न चले वही आवश्यक है और उसकी जरूरत ही हमारी आवश्यक्ता है , और कुछ भी नहीं .
अब ज़रा हम अपनी आवश्यकताओं की लिस्ट पर एक नजर डालें तो हम हम पायेंगे कि वहां सारी की सारी अनावश्यक वस्तुएं ही भरी पडी हें , उनमें एक भी वस्तु आवश्यक नहीं है .
यूं यह तुलना तो हमें पसंद नहीं आयेगी पर समझने के लिए जरूरी है –
ज़रा विचार करें कि जीवन तो पशु भी जीते हें , अपना पूरा जीवन जीते हें , इका मतलब है कि उन्हें वह सब उपलब्ध है जो जीने के लिए आवश्यक है , वरना वे जीते कैसे ?
अब ज़रा हम नजर तो डालें कि उनके पास क्या होता है ?
उन्हें क्या चाहिए ?
बस जो कुछ उन्हें चाहिए , वही , मात्र वही हमें भी चाहिए , उससे अधिक कुछ भी नहीं .
मात्र भोजन और सुरक्षा .
इसके आलावा और जो कुछ भी हमारी चाहत में शामिल है वह सब आवश्यक्ता नहीं विलासिता की वस्तुएं हें .
अब ज़रा विचार तो करें ! कहाँ इतनी कम आवश्यक्ता और कहाँ इतनी विशाल ( अनंत ) इक्षाएं ?
ये सब कृत्रिम हें और ये ही हमारी गुलामी और दुःख की कारण हें .
इस प्रकार हम पाते हें कि अपनी गुलामी के लिए हम स्वयं ही जिम्मेबार हें , दूसरा कोई नहीं .
हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी हमें किसी की ओर तकने की जरूरत ही नहीं है , वह तो हमें मिल ही जयेगा , वह तो हमें सहज ही उपलब्ध है ही .
बस यदि हमने इस तथ्य को और सत्य को स्वीकार कर लिया तो हम आजाद हें , आजाद रहेंगे .
हम आजादी तो चाहते हें , आजादी की बातें भी बढ़-चढ़कर करते हें पर हम आजादी को भी जानते नहीं , पहिचानते नहीं .
हम अपनी निरंकुशता और उच्छ्रंखलता को अपनी आजादी मान बैठते हें , पर हमारी निरंकुशता और उच्छ्रंखलता तो दूसरों की आजादी का हनन करेगी ; और यदि ऐसा होगा तो कोई आपको कैसे आजाद रहने देगा ?
जैसाकि मैंने ऊपर कहा हमारा यह आजादी का संघर्ष किसी अन्य के विरुद्ध नहीं वरन स्वयं अपनी ही वृत्तियों के विरुद्ध होना चाहिए क्योंकि हम किसी और के नहीं वरन स्वयं अपनी ही वृत्तियों के गुलाम हें . तब किसी के प्रति उपेक्षा कैसी , द्वेष कैसा ?
बिडम्बना यह है कि हमारी द्रष्टि ही परोनमुखी है और हमारी वृत्ति है द्वेष मूलक . यही कारण है कि हमें जिससे कोई अपेक्षा नहीं होती है , हमें जिसकी आवश्यक्ता नहीं होती है हम उसके प्रति उपेक्षा का व्यवहार करने लगते हें , हमारी यह उपेक्षा और कुछ नहीं , यह हमारी द्वेष वृत्ति है .
क्या यह जरूरी है कि हमें जिसकी जरूरत न हो हम उससे द्वेष करें ?
ऐसा क्यों नहीं हो सकता है कि हम न तो किसी से राग करें और न ही द्वेष ?
हमारी यह आजादी , हमारी यह निस्पृह वृत्ति भी निरपेक्ष ही होनी चाहिए , उपेक्षा और द्वेष मूलक नहीं . मेरा तात्पर्य है कि यदि हमने किसी से किसी भी प्रकार की अपेक्षा का त्याग किया है तो हमारी वृत्ति में उसके प्रति समभाव होना चाहिए उपेक्षा या द्वेष नहीं .
यथा – “ हमें तुमसे कुछ चाहिए ही नहीं , हम क्यों तुम्हारी परवाह करें “
उक्त वृत्ति समभाव मूलक नहीं द्वेष मूलक है , यह भी हमारी दासता की व्रत्ति को ही इंगित करता है . जब हमें किसी से कोई अपेक्षा होती है तो हम उसके प्रति याचक भाव रखें और अपेक्षा न होने पर अकड़ पैदा हो जाए ये दोनों ही भाव एक ही गुलामी की वृत्ति के ही दो पहलू हें , एक हीनता की भावना भरा और दूसरा उच्चता की भावना भरा . सामान्य व्यवहार दोनों ही नहीं हें .
यदि हमें किसी से कुछ नहीं चाहिए तो भला उसके प्रति द्वेष की क्या आवश्यक्ता है ?
इस प्रकार हम पाते हें कि हमारी समस्त समस्याओं के पीछे कारण कोई और नहीं वरन हमारी अपनी ही विकृत सोच और वृत्तियाँ हें और यदि हमें स्वतंत्र और सुखी रहना है तो हमें उक्त वृत्तियों का त्याग करके समभाव ही धारण करना होगा .

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