Wednesday, August 6, 2014

“ बड़े नादान हें बे डेढ़अकल लोग “ – एक अन्योक्ति

“ बड़े नादान हें वे डेढ़अकल लोग “ एक अन्योक्ति
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल 
कुछ लोग इतने स्मार्ट होते हें कि वे पतझर के ठूंठ को एक दिन भी पानी नहीं पिलाना चाहते हें , अरे ! पानी पिलाना तो दूर दूसरे हरे-भरे दिखने वाले दरख्तों के व्यामोह में वे उनके बीच खड़े इस ठूंठ को तो काट ही फेकना चाहते हें .
वे यह भूल जाते हें कि अभी कुछ ही दिनों पहिले तक यह ठूंठ भी कैसा हराभरा था और फलों से लदा हुआ था और उन नादानों को यह मालूम नहीं कि न तो उन दरख्तों की वह बहार अंतिम थी और न ही यह पतझार ही इनकी अंतिम नियति और इनका अंतिम सत्य है . बस कुछ ही दिनों की तो बात है इन पर फिर बहार आयेगी .
और हाँ ! पतझर के बे सूखे ठूंठ किसी के दो बूँद पानी के मोहताज भी नहीं होते , प्रकृति को मालूम था कि ये कैसे निष्ठुर , मूर्ख , स्वार्थी और कृतघ्न मनुष्यों के हत्थे चड़े हें , उसने उनके उन दिनों के दानापानी का इंतजाम पहिले ही कर रखा है .
अब देखना है तो बस यह कि सचमुच ही ये उताबले लोग बहार आने का इन्तजार किये बिना ही इन ठूंठों को काट न फेकें , क्योंकि इनका ऐसी नादानियों का इतिहास पुराना है . हमने पहिले भी देखा है कि इन्होंने अनेकों पौधे खुद रोप हें और उनके फलने तक का सब्र भी नहीं कर सके , खुद ही उन्हें अपने ही हाथों उखाड़ फेका है .
ऐसा नहीं है कि तब भी इन्हें किसी ने बतलाया न हो कि तुम जो यह पौधा रोप रहे हो यह कल ही नहीं फलने लगेगा , इसमें वक्त लगता है , वक्त लगेगा ; पर तब भी इन्होंने किसी की नहीं सुनी , यह तब भी शेखचिल्ली की तरह ख़्वाब ही देखते रहे कि –

“ लगता होगा और लोगों को वक्त , हम तो विरले हें , देखना हम क्या कमाल करते हें , और फिर हमारा बिगड़ता क्या है यदि नहीं फला तो काट डालेंगे , उखाड़ फेकेंगे , हमारा जाता ही क्या है ? न तो खेत हमारा है और न ही बीज , पानी सीचने की जिम्मेदारी भी किसी और की ही है , हमारी तो सिर्फ होशियारी है , जिसका आँगन खुदेगा , कचरा ( मलबा ) जिसके खेत में फैलेगा बो समेटेगा , हमारा क्या ; हम तो आगे बढ़ जायेंगे , हमें कोई और (कर्म फूटा ) मिल ही जाएगा , जब इतने मिले तो एक और न मिलेगा ? “ 

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