Thursday, August 6, 2015

जब तक यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि “मैं कौन हूँ” मेरे पास करने को कुछ शेष रहता ही नहीं.


इसी आलेख से -
करने योग्य कार्य तो मात्र वही है जो मेरे लिए हितकारी हो, “मैं” की पहिचान के अभाव में जब मेरे हित ही सुनिश्चित व सुपरिभाषित नहीं तो मैं किसका हितसाधन करूं?
अबतो मेरे पास करने के लिए एक ही काम रहता है कि मैं यह सुनिश्चित करूं कि आखिर मैं हूँ कौन” और जब तक अंतिम रूप से द्रढ़ता पूर्वक यह निर्णय न हो जाएमैं और कुछ भी न करूं.

धर्म क्याक्योंकैसे और किसके लिए (पंद्रहबीं कड़ी)
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि – “हम इस निष्कर्ष तक तो पहुँच जाते हें कि मैं एक मनुष्य हूँ. मैं कमल-विमल या व्यापारी-छात्र या राजस्थानी-मराठी या बालक-युवा या पिता-पुत्र या ग्राहक-मरीज नहीं. 
पर हम इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते हें कि मैं मनुष्य भी नहीं, अनादिकाल से अनंतकाल तक रहने वाला जीव तत्व आत्मा हूँ.
हमें यह तथ्य कैसे स्वीकृत हो, इसके ज्ञान और स्वीकृति के बगैर अबतक हमारी क्या दशा हुई, यह जानने के लिए पढ़िए-



अंतिमरूप से यह निर्णय हो जाने के बाद कि मैं बालक या छात्र नहींपुरुष या स्त्री नहींहिन्दुस्तानी या राजस्थानी नहींजैन या अजैन नहींवलवान या कमजोर नहींछोटा या बड़ा नहींधनवान या गरीब नहीं,राहगीरयात्रीसवारी,ग्राहकमरीजव्यापारी या कलाकारवकीलडाक्टरइंजीनियर या राजनेता नहीं. मैं पुत्रपिता या भाई नहींमैं युवकजवानप्रौढ़ या बृद्ध नहीं. मैं शत्रु-मित्र या अपना-पराया नहीं और अंतत: मैं परमात्म प्रकाश भी नहीं और मनुष्य भी नहीं तब यह प्रश्न सबसे अहम् हो जाता है कि आखिर मैं हूँ कौन ?
यह तथ्य स्थापित होजाने के बाद कि मेरी मैं’ की परिभाषा बदलते ही मेरे कृत्य-अकृत्य व हित-अहित बदल जाते हें यह निर्णय करना अपरिहार्य है कि सचमुच मैं हूँ कौन, क्योंकि जब तक यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि मैं कौन हूँ” मेरे पास करने को कुछ शेष रहता ही नहीं.
करने योग्य कार्य तो मात्र वही है जो मेरे लिए हितकारी हो, “मैं” की पहिचान के अभाव में जब मेरे हित ही सुनिश्चित व सुपरिभाषित नहीं तो मैं किसका हितसाधन करूं?
अबतो मेरे पास करने के लिए एक ही काम रहता है कि मैं यह सुनिश्चित करूं कि आखिर मैं हूँ कौन” और जब तक अंतिम रूप से द्रढ़ता पूर्वक यह निर्णय न हो जाएमैं और कुछ भी न करूं.
अंतिम निर्णय होने तक मैं जो कुछ भी करूंगा वह व्यर्थ ही जाएगा.
अब तक यही तो होता आया हैअनादिकाल से अब तक मेरा सम्पूर्ण कर्तृत्व भी मेरे किस काम आया हैसब कुछ व्यर्थ ही तो हुआ है. मैं दुखी ही तो बना रहा.
अनादिकाल से हम सभी जीवों की व्यक्त या अव्यक्तमात्र एक ही तो चाहत हैसुख की प्राप्ति की; और सुख ही न मिलालेश मात्र भी नहींएक पल भी नहीं तब फिर इसके बगैर तो सब कुछ व्यर्थ ही है न ?
शाश्वत सुख की बात तो जाने ही दीजिये पर क्या में क्षणिक सुखाभास भी भोग पाया ?
आब देखिये न ! मैं कितना मगन था अपने बचपन में, कितना सुहाना था वह मेरा बचपन ?
चिंता रहित खेलना खाना और फिरना निर्भय स्वच्छंद
पर ज्यों ही मुझमें यह अहसास पनपा कि यह बचपना मैं नहींयह तो चला जाएगा कुछ ही दिनों(बर्षों) मेंपर मैं तो रहूँगा. मैं तो 70-80 बर्षों तक रहूँगा. तब बचपन तो बना रहा पर बचपना छूट गयाबचपन में ही बचपना छूट गया. जिसके गीत गाते हुए कवि लोग थकते नहीं, मैं बचपन के उस कथित आनन्द को भोग कहाँ पाया?
मुझमें गंभीरता आगई. अपने सम्पूर्ण जीवन के लिए कुछ करने की भावना पनपी.
हलांकि मुझे खेलना-कूदना अच्छा लगता था पर वह छूट गया.
हलांकि पढ़ने-लिखने में मेरी रूचि कम थी पर मैंने अपने आपको पढ़ने-लिखने में ही झोंक डाला क्योंकि मुझे अपने सम्पूर्ण जीवन के सुखी होने का उपाय जो करना था.
सम्पूर्ण जीवन को सुखी बनानी की गहरी चाहत ने मेरे वर्तमान को तो बोझ बना डाला पर क्या मुझे भविष्य में भी सुख मिल सका?
बचपन गया और किशोरावस्था आयी, किशोरावस्था मैं तो मानो मेरी कल्पनाओं को पर ही लग गए थेजिन्दगी एक सुहाना सफ़र लगने लगा था, स्वच्छंद विचरने और खुले आसमान में ऊँचे उड़ने को मन करने लगा था; पर मैं ऐसा कर ही कब पाया?
नहीं !
क्योंकि ज्यों ही ऐसा कुछ भी करने को उद्धत होता कि संशय का सर्प डंस जाता कि - यह अल्हड अवस्था है ही कितने दिनों कीफिर तो जीवन की कठोर हकीकतों से रूबरू होना ही होगा नयदि आजका कीमती वक्त इन कल्पना की उड़ानों में ही बर्बाद कर डाला तो मेरा भविष्य क्या होगा ?”
और मैं ठिठक जाता.
इस प्रकार किशोरावस्था भी निष्कर्ष विहीन ही व्यतीत हुई और वक्त के कन्धों पर चड़कर शीघ्र ही मैं जबानी में प्रवेश कर गया.

जबानी कैसी गुजरी और वृद्धावस्था में मेरे साथ क्या हुआ यह जानने के लिए पढ़िए इस श्रखला की अगली (सोलह्बीं) कड़ी. 
अगले अंक में -



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