Sunday, August 30, 2015

कौन कहता है कि चक्रवर्ती बनने के लिए भरत ने अपने ही भाइयों का राज्य छीन लिया ?

इसी लेख से -
"आखिर ऋषभदेव जैसे विवेकी व्यक्ति से कोई ऐसे अविवेक की अपेक्षा भी कैसे कर सकता था कि - 
वे स्वयं अपने ही हाथों अपने ही राज्य के १०० टुकड़े कर देते. 
उन्हें कमजोर कर देते. 
उन्हें भविष्य में एक दूसरे से लड़ने के लिए छोड़ देते.
तब उनके राज्य का क्या होता?
प्रजा का क्या होता?"

कौन कहता है कि चक्रवर्ती बनने के लिए भरत ने अपने ही भाइयों का राज्य छीन लिया ?


- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 























                           चक्रवर्ती भरत का वैभव 
बाहुवली सहित अन्य १०० भाई तो राजा थे ही कब? 
दीक्षा लेते समय स्वयं महाराज ऋषभदेव ने भरत को ही सम्राट पद दिया था और बाहुवली को युवराज पद देकर पोदनपुर का कार्यभार सोंपा था (आदि पुराण के आधार से ), तो बाहुवली भरत के आधीन ही तो हुए न, वे युवराज ही तो रहे, वे राजा बने ही कब थे?
बस यही स्थिति अन्य ९९ भाइयों की भी रही होगी। 
जब ऐसा ही है तो इस बात का प्रश्न ही कहाँ है कि भरत ने अपने भाइयों का राज्य छीन लिया?
भरत ने कब मनमानी की
उन्होंने तो पिता के आदेश का पालन किया और किया चक्ररत्न की मर्यादा का पालन। 
बाहुवली सहित अन्य सभी भाई भरत के आधीन तो तब भी थे जब भरत दिग्विजय के लिए नहीं निकले थे, और फिर यह क्रम कोई दिन दो दिन नहीं पूरे एक हजार साल से चल रहा था (ऋषभदेव द्वारा दीक्षा लिए जाने के दिन से उनके केवलज्ञान होने के दिन तक). 
तब फिर क्या फर्क पड़ गया आज?
यदि अब तक सब चलता रहा तो आज ही क्या अजूबा होगया कि अब आज उन्हें भारत की आधीनता स्वीकार न रही?

हुआ यह होगा कि वे सभी १०० भाई स्वयं महाराज ऋषभ के शासनकाल में भी युवराज के रूप में अपने-अपने को सोंपे गए गाँवों का शासन देखते ही रहे होंगे और भरत महाराज ऋषभ के साथ रहकर सम्पूर्ण राज्य के शासन में उनकी मदद करते होंगे, जब महाराज ऋषभ दीक्षा लेने लगे और उन्होंने भरत को सम्राट बना दिया तब वे सभी १०० भाई उसी तरह सम्राट भरत के आधीन भी युवराज बने रहे जैसे वे महाराज ऋषभ के आधीन थे, वे बैसे ही काम करते रहे जैसे महाराज ऋषभ के समय में करते रहते थे, बिना रोकटोक, बिना उंच-नीच के भेद के, बिना स्वाधीनता या आधीनता का विचार करते हुए। 
सम्राट भारत ने भी कभी उन्हें यह अहसास ही नहीं दिलाया कि वे स्वयं तो सम्राट हें और अन्य सभी १०० भाई उनके आधीन हें, और इस प्रकार सब कुछ बैसे ही चलता रहा जैसे ऋषभ के कार्यकाल में चल रहा था। 
यह तो चक्ररत्न की शर्त थी कि सभी आधीनस्थ राजालोग नतमस्तक होकर विधि पूर्वक, घोषणा पूर्वक भरत की आधीनता स्वीकार करें और इसी घोषणा की शर्त ने सभी को कम्पायमान कर डाला। 
अन्यथा क्या फर्क पड़ना था, भरत की दिग्विजय के बाद भी छह खंड के अन्य राजाओं की ही तरह वे सभी १०० भाई भी तो भरत के आधीन रहकर अपने-अपने राज्य के शासक तो बने ही रह सकते थे !
जो कुछ किया वह तो स्वयं ऋषभदेव ने किया था, और ऋषभदेव ने भी गलत क्या किया था?
प्रथम तो यह उनका अधिकार था कि वे जिसे चाहते उसे अपना राज्य सौंपते; और यही उन्होंने किया भी। 
आखिर ऋषभदेव जैसे विवेकी व्यक्ति से कोई ऐसे अविवेक की अपेक्षा भी कैसे कर सकता था कि - 
वे स्वयं अपने ही हाथों अपने ही राज्य के १०० टुकड़े कर देते. 
उन्हें कमजोर कर देते. 
उन्हें भविष्य में एक दूसरे से लड़ने के लिए छोड़ देते.
तब उनके राज्य का क्या होता?
प्रजा का क्या होता?
क्या फिर उनके अनुगामी (उन्हीं के १०१ पुत्र भी उन्हीं का अनुशरण नहीं करते?
क्या वे एक -एक गांवों के राजा भी उनके २ या अधिक पुत्र होने की स्थिति में अपने-अपने गांवों का विभाजन अनेक भागों में करने के लिए प्रेरित नहीं होते?
तब क्या होता?
तब क्या राज्य राज्य रह पाते , क्या तब राजा राजा रह जाते?

क्या भरत के लिए भी यह उचित था कि वे भाइयों के व्यामोह में छह खंड को खंडित ही बने रहने देते?
और फिर यदि भरत चाहते भी तो क्या वे ऐसा करने के लिए स्वतन्त्र थे?
क्या चक्र रत्न उन्हें ऐसा करने देता?

शासन के अपने तर्क होते हें, अपनी नीतियां होती हें, अपनी मर्यादा होती है, अपनी मजबूरियाँ होती हें। 
गलत कुछ भी नहीं हुआ, गलती किसी ने नहीं की, सब अपनी-अपनी तरह से सही ही थे। 
न तो ऋषभदेव ही गलत थे और न ही भरत, उन्होंने वही किया जो एक विवेकी शासक को करना चाहिए। 
बाहुवली और अन्य ९९ भाइयों से भी कोई गलती नहीं हुई,
उन्होंने जगत के सवरूप को समझा और वस्तुस्थिति को स्वीकार किया, अपने तरीके से अपने देश के हितों की रक्षा की, अपने स्वाभिमान की रक्षा की और अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 
उक्त सारे के सारे घटनाक्रम में शामिल सभी पात्र अपनी-अपनी भूमिका में शतप्रतिशत सफल रहे। 
वे सभी युगों-युगों के लिए एक मिशाल बन गए। 




























                                                           बाहुवली द्वारा दीक्षा ग्रहण 


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