Sunday, August 30, 2015

परमात्म नीति – (36) - क्या ये प्रावधान क़ानून की गम्भीर विसंगतियां नहीं हें? क्या इनपर विचार नहीं होना चाहिए? क्या क़ानून में परिवर्तन नहीं होना चाहिए?



   - परमात्म नीति – (36)




न्यायलय द्वारा सल्लेखना को आत्महत्या करार देकर 

दण्डनीय अपराध बतलाये जाने के सन्दर्भ में -



-    क्या ये प्रावधान क़ानून की गम्भीर विसंगतियां नहीं हें? क्या इनपर विचार नहीं होना चाहिए? क्या क़ानून में परिवर्तन नहीं होना चाहिए?





यदि आत्महत्या दण्डनीय अपराध है तो मैं पूंछता हूँ कि आत्महत्यारे को सरकार क्या दंड देती है?
जाहिर है कि कुछ नहीं, दंडित होने के लिए वह (अपराधी) उपलब्ध ही कहाँ है?

जो कृत्य दण्डनीय नहीं है उस कृत्य के लिए उकसाने वाले और सहायक होने वाले लोग कैसे दण्डनीय हो सकते हें भला?

ठीक इसी तरह जो कृत्य दण्डनीय नहीं है वह कृत्य करने का प्रयास भी कैसे दण्डनीय हो सकता है?

क्या ये प्रावधान क़ानून की गम्भीर विसंगतियां नहीं हें?
क्या इनपर विचार नहीं होना चाहिए?
क्या क़ानून में परिवर्तन नहीं होना चाहिए? 


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उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.

घोषणा 


यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.

यह क्रम जारी रहेगा. 

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

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