Friday, September 18, 2015

धर्म के दशलक्षणों में द्वितीय - उत्तम मार्दव धर्म -

धर्म के दशलक्षणों में द्वितीय -
उत्तम मार्दव धर्म -

इसी आलेख से -

- "अपने उक्त परिपूर्ण स्वभाव को भूलकर यह जीव हीनता और उच्चता की भावना (जिसे मान कषाय कहते हें)से ग्रस्त होकर पीड़ित होता है,  
मान कषाय से पीड़ित यह जीव जलबिन मछली के सामान तडपता है, वेचैन और व्याकुल होता है.
मान कषाय के अभावरूप यह मार्दवधर्म इस जीव को उस पीड़ा से मुक्त करने का सरलतम और एकमात्र उपाय है.
              



                       
 उत्तम मार्दव धर्म


                 पर द्रव्य के संयोग से, खुदको बड़ा-छोटा मानना  
                 बड़प्पन की हो  या हो चाहे,  हीनता  की  भावना
                 ना  आत्मा  को  जानना, परिपूर्णता  पहिचानना
                 है मान कषाय यहही, मार्दव धर्म की अवमानना   

  है अनंत गुण पर्यायवाला ,  आत्मा   यह  जानना 
 परिपूर्ण है वहतो स्वयं में, छोटा - बड़ा ना मानना 
 मार्दवस्वभावी आत्मा का, जो जीव अवलंबन करें 
वे  धनी  मार्दव  धर्म  के, मुक्ती  रमा  को  वे  वरें


पदों का भावार्थ -
अपने मार्दवस्वभावी, परिपूर्ण आत्मा को भूलकर परद्रव्यों के संयोग से अपने को बड़ा या छोटा मानना माँ कषाय है.
जो जीव अपने आत्मा के अनन्तगुण व पर्यायों का स्वरूप समझकर उसे अपनेआप में परिपूर्ण मानता व अनुभव करता है वह मार्दवधर्म का धारी होता है और मुक्तिवधु का वरण करता है.

क्षमा के सामान ही मार्दव भी आत्मा का धर्म है.

जगत के प्रत्येक द्रव्य के ही सामान हमारा यह आत्मा अनन्तगुणों का स्वामी व अपने आप में परिपूर्ण है, इसके पास अतितिक्त कुछ भी नहीं कि किसीको कुछ दे सके और न ही कोई कमी है कि किसी से कुछ ग्रहण करे.

अपने उक्त परिपूर्ण स्वभाव को भूलकर यह जीव हीनता और उच्चता की भावना (जिसे मान कषाय कहते हें )से ग्रस्त होकर पीड़ित होता है,  

मान कषाय से पीड़ित यह जीव जलबिन मछली के सामान तडपता है, वेचैन और व्याकुल होता है.
मान कषाय के अभावरूप यह मार्दवधर्म इस जीव को उस पीड़ा से मुक्त करने का सरलतम और एकमात्र उपाय है.

यूं तो जगत का प्रत्येक जीव अपने अनंतगुणों की संपदा से सम्पन्न स्वयं ही सम्मानित है, कौन इसका अपमान कर सकता है और कौन इसका मानभंग करे ? पर अपने इस मार्दवस्वभावी वैभव को भूलकर जब-जब यह पर की ओर देखता है तो अपमान का अनुभव करता है. 


कभी यह हीनता की भावना (inferiority complex)से ग्रस्त होकर अपनेआपको दीनहीन अनुभव करता है और कभी उच्चता की भावना (superiority complex) से ग्रस्त होकर दूसरों को दीनहीन मान बैठता है.

भावना चाहे हीनता की हो या उच्चता की, स्वाभाविक वृत्तियाँ (complex free) दोनों ही नहीं हें. दोनों ही अस्वाभाविकताएं (complex) हें, दोनों ही विकृतियाँ हें, दोनों ही पीडादायक हें.

दोनों ही भावनाओं से प्रेरित होकर यह जीव अन्य लोगों को अपने अनुरूप परिणमाना चाहता है,उनसें सम्मान पाना चाहता है, जो संभव नहीं है, तब यह दुखी होता है.


मार्दवस्वभावी आत्मा का आश्रय लेकर यह जीव मान-अपमान की पीड़ा से मुक्त होजाता है.


आइये हम सभी इस महान मार्दवधर्म को धारण कर परम सुखी हों .


कल पढ़िए आर्जव धर्म के बारे में -

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