Saturday, September 19, 2015

उत्तम आर्जव धर्म -

धर्म के दश लक्षणों में त्रतीय -

उत्तम आर्जव धर्म -

इसी आलेख से -
- "अरे भोले ! अपने स्वभाव की वक्रता से तूने आजतक स्वयं अपनेआप को ही छला है किसी अन्य को नहीं.
तूने यह क्या किया?
अपनेआपको पहिचानने से ही इन्कार दिया? स्वयं अपनी सत्ता से ही इन्कार कर दिया?
अरे नादान ! तू अपनी यह धूर्तता कब छोड़ेगा?"

- "सरलता का नाम आर्जव धर्म है, सरलता यानि वक्रता, छल-कपट का अभाव.
यह जीव स्वयं अपनी ही सत्ता से इन्कार करता है, यही इसका सबसे बड़ा मायाचार है.
अनन्त गुणों के स्वामी, अनादि-अनन्त आत्मा (स्वयं) की स्वीकृति ही उतमआर्जव धर्म है."












उत्तम आर्जव 

है स्वयं तूही आत्मा, पर आतम तुझे दिखता नहीं 
इस आत्मा को आत्मा का, जिक्र तक रुचता नहीं
सबसे बड़ा  मायाचार तेरा, है यही तेरी  विफलता 
यह वक्रता  है वृत्ति की, इसकी  विरोधी  सरलता 

आर्जव स्वभावी आत्माका, जो जीव अवलंबन करे
तज  क्रोधादि  कषाय  पुंज,  सरलता  को  जो  वरे
परद्रव्य से निर्लिप्त आतम, द्रव्य का  आश्रय  करे 
कुछ काल में  संसार तज, मुक्तीरमा  को  वह  वरे 

पद का भावार्थ -
तू  स्वयं ही आत्मा है और कहता है कि तुझे आत्मा तो दिखता ही नहीं. इस आत्मा को आत्मा की चर्चा तक नहीं सुहाती है यही इसका मायाचार है, यही इसकी व्रत्ति की वक्रता है, यही इसकी आत्मा को पहिचानने में असफलता है और इसके विपरीत सरलता ही उत्तम आर्जव धर्म है.

जो जीव उक्त मायाचार का त्यागकर, पर द्रव्यों से प्रथक आर्जव स्वभावी निज आत्मा का आश्रय लेता है वह अल्पकाल में ही मुक्ति वधु का वरण करता है. 

अरे भोले ! अपने स्वभाव की वक्रता से तूने आजतक स्वयं अपनेआप को ही छला है किसी अन्य को नहीं.

तूने यह क्या किया?
अपनेआपको पहिचानने से ही इन्कार दिया? स्वयं अपनी सत्ता से ही इन्कार कर दिया?

अरे नादान ! तू अपनी यह धूर्तता कब छोड़ेगा? 

हे आर्जव स्वभावी आत्मन ! तू कब अपने इस आर्जव स्वभाव भाव में अवतरित होगा?

कपटी की कपट वृत्ति अपने और पराये का भेद नहीं करती है, वह तो स्वयं अपने को और अन्यों को, दोनों को ही अपना निशाना बनाती है, अन्य तो अपने जाग्रत विवेक का उपयोग करके बचजाते हें, पर यह स्वयं हे अपनी चपेट में आजाता है.

छलिया सबसे पहिले और सबसे अधिक अपनेआप को छलता है, यह मानकर कि दुनिया उसके छलावे में आगई अन्यथा दुनिया तो अपने निर्णय अपने विवेक से करती है, किसी के बहकावे में आकर नहीं. 

हाँ ! लोग ऐसा अभिनय करके उस छलिया को अवश्य छल लेते हें, मानो वे उसके बहकावे में आगये हों.

सरलता का नाम आर्जव धर्म है, सरलता यानि वक्रता, छल-कपट का अभाव.

यह जीव स्वयं अपनी ही सत्ता से इन्कार करता है, यही इसका सबसे बड़ा मायाचार है.

अनन्त गुणों के स्वामी, अनादि-अनन्त आत्मा (स्वयं) की स्वीकृति ही उतमआर्जव धर्म है.

अनादिकाल से इस आत्मा ने स्वयं के साथ ही छल किया है, यह कहता है कि आत्मा दिखाई तो देता नहीं, हम कैसे मानें कि आत्मा है और अनन्तकाल तक रहेगा भी. बस इसीलिये यह जीव आजतक संसार में भटक रहा है. 

एक साहित्यकार ने लिखा है - "कैसा गजब होगया है कि खोजने वाला खोगया है, खोजने वाला, खोजने वाले को खोज रहा है पर खोजने वाले को खोजने वाला नहीं मिल रहा है."


जिसदिन यह जीव अपने स्वरूप को पहिचानकर स्वीकार कर लेगा उसीदिन आर्जवधर्म का धारी हो जायेगा.


उक्त के अतिरिक्त अपने दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में कियाजाने वाला कपटपूर्ण व्यवहार भी आर्जवधर्म की विरोधी मायाकषाय है ही.


कल पढ़िए उत्तमशौच धर्म -

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