Tuesday, October 13, 2015

परमात्म नीति - (61) - महान लोग आवश्यक्ता पड़ने पर खतरों से भी खेलते हें.

कल आपने पढ़ा -

"महान लोग दुस्साहस नहीं करते हें"

अब आगे पढ़िए 
परमात्म नीति - (61)

by- परमात्म प्रकाश भारिल्ल

महान लोग आवश्यक्ता पड़ने पर खतरों से भी खेलते हें -

इसी आलेख से -

- "यदि कोई खतरों के डर से कुछ करे ही नहीं, साहसिक कदम ही न उठाये तो फिर उपलब्धिविहीन जीवन जीकर भी क्या करेगा?"
- "यूं भी जगत में निरापद तो कुछ भी नहीं है. चारों ओर इतने खतरे हें कि और सब काम छोड़कर मात्र सुरक्षा में ही अपनी सारी शक्ति और साधन झोंक दिए जाएँ तब भी कोई न कोई कसर रह ही जयेगी."

- "सामान्य लोग मात्र खतरों का चिंतन ही करते रहते हें और ऐसे कदम ही नहीं उठाते हें जिनसे प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो.
महान लोग खतरों को भांपते हुए, उनसे बचाव के उपाय करने के बाबजूद उपस्थित रही खतरों की सम्भावना को स्वीकारते हुए आगे बढ़ ही जाते हें."










एक ओर जिल्लतभरी अपंग जिन्दगी हो और आपरेशन करबाने पर कचाचित रोग से मुक्ति संभव हो पर इस बात की संभावना भी हो कि यदि आपरेशन असफल हो गया तो आपरेशन टेबिल पर ही म्रत्यु हो सकती है, ऐसे में जीवन के वे कुछ दिन जो और जिए जासकते थे, भी हाथ से निकल सकते हें, ऐसे में कोई क्या करे? क्या आपरेशन करबालेने का निर्णय लेना ही उचित नहीं है ?


यह सत्य है कि महानलोग व्यर्थ खतरे मोल नहीं लेते हें पर वे अवश्यम्भावी खतरों से डरकर बैठ भी नहीं जाते हें. 
यदि कोई खतरों के डर से कुछ करे ही नहीं, साहसिक कदम ही न उठाये तो फिर उपलब्धिविहीन जीवन जीकर भी क्या करेगा?

कई बार तो स्थिति ही ऐसी होजाती है कि "आगे कुआ और पीछे खाई" यानिकि सामने मौजूद दो खतरों में से एक को चुनने के अलावा हमारे सामने कोई विकल्प ही नहीं होता है.
जिन लोगों में ऐसी स्थिति में निर्णय लेने का साहस नहीं होता है वे कदाचित बेहतर विकल्प को छोड़कर बदतर स्थिति में फंस जाते हें.

यूं भी जगत में निरापद तो कुछ भी नहीं है. चारों ओर इतने खतरे हें कि और सब काम छोड़कर मात्र सुरक्षा में ही अपनी सारी शक्ति और साधन झोंक दिए जाएँ तब भी कोई न कोई कसर रह ही जयेगी. 

खतरे कहाँ नहीं हें? चारों ही और हम खतरों से ही तो घिरे हें. 
- हमारे रसोईघर में गैस सिलिन्डर नाम का बम रखा है और उसे हम रोग सुलगाते भी हें, अब कसर क्या रह गई? बस वही अग्नि कुछ और इंच आगे बडजाए तो अनर्थ हो जाए.
- बिजली के तारों का जाल हमारे चारों और बिछा है -------
- हम सड़क पर चलते हें और बड़े-बड़े भारी वाहन निरंतर हमारे अगल-बगल से मात्र कुछ ही इंचों की दूरी से तेजी से गुजरते रहते हें, वे या हम बस कुछ ही बहके कि सर्वनाश निश्चित है.
कहने का तात्पर्य है कि खतरें प्रतिपल हमारे चारों और ही मौजूद हें.   “सावधानी हटी और दुर्घटना घटी” 
जो लोग खतरों से डरकर अपने कदम ही नहीं बढाते वे सफल कैसे होंगे ? 
कहा भी है न कि- 
“मैं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ, जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ”

इस प्रकार सामान्य लोग मात्र खतरों का चिंतन ही करते रहते हें और ऐसे कदम ही नहीं उठाते हें जिनसे प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो.

महान लोग खतरों को भांपते हुए, उनसे बचाव के उपाय करने के बाबजूद उपस्थित रही खतरों की सम्भावना को स्वीकारते हुए आगे बढ़ ही जाते हें. 

यूं मानव ने तो अपनेआप को काफी कुछ हद तक सुरक्षित कर लिया है, पर ज़रा पशुओं के बारे में तो विचार कीजिये! भोजन के लिए उन्हें अपने अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थान से बाहर निकलना तो अपरिहार्य  (unavoidable) है और बाहर निकलने पर स्वयं को भोजन मिले या न भी मिले पर स्वयं किसी और का भोजन बन जाने की संभावना अत्यंत प्रवल है. अब बे क्या करें?
वे यदि घर में ही छुपकर बैठे रहें तो भूंखों मर जायेंगे और बाहर निकले तो
चारों ओर खतरे ही खतरे हें, इसलिए खतरे मोल लेना और खतरों के बीच ही जीना तो उनकी नियति ही है. 
अरे! वे अपने घर में ही कहाँ सुरक्षित हें, उनके घरों में ताले तो लगते नहीं, कोई भी, कभी भी उनके घर में घुसकर भी उन्हें मार सकता है. 


आगे पढ़िए -


"
महानलोग गल्तियाँ होने के भय से ठहर नहीं जाते हें."

कल 


 

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उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.

घोषणा 


यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.

यह क्रम जारी रहेगा. 

 

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

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