सल्लेखना : वर्तमान परिपेक्ष्य
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
तथ्यों की नासमझी या गैरसमझ किस प्रकार दुष्परिणामों के रूप में प्रतिफलित हो सकती है इस बात का ज्वलंत उदाहरण है सल्लेखना (संथारा) के सम्बन्ध में आया राजस्थान हाईकोर्ट का निर्णय.
किस प्रकार अनजाने ही एक पवित्रतम वस्तु को एक घ्रणित नाम दिया जा सकता है, उक्त निर्णय इस तथ्य का जीताजागता उदाहरण है.
“सल्लेखना” या “संथारा” जोकि एक आदर्शतम जीवनशैली है, उसे किस प्रकार आत्महत्या का प्रयास समझलिया व घोषित करदिया गया है यह निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है.
दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य तो यह है कि माननीय न्यायालय ने तो सल्लेखना को म्रत्यु से जोड़कर देखा ही है पर हम जैन लोग भी इस मामले में पीछे नहीं हें, सल्लेखना का वास्तविक अर्थ समझे बिना हममें से भी अधिकतम लोग भी यही मानते हें कि सल्लेखना साधुओं द्वारा मात्र मृत्यु के स्वयंवर की प्रक्रिया का नाम है.
आज जब इस चर्चा ने जोर पकड़ ही लिया है तब निश्चित ही मात्र अन्यत्र ही नहीं वरन जैनसमाज में भी इस बिषय पर गहन उहापोह होही रहा है. इस बिषय पर अनेकों पुस्तकें, समीक्षापूर्ण लेख और अनेक विद्वानों के अभिमत भी सामने आरहे हें.
सल्लेखना का आशय, सच्चास्वरूप व प्रक्रिया क्या है; इन तथ्यों पर प्रकाश डालती हुई डा. हुकमचंद भारिल्ल की एक नवीनतम कृति- “आगम के आलोक में : समाधिमरण या सल्लेखना“ भी सामने आई है जिसमें शास्त्रों के प्रमाणों और युक्तियों द्वारा इस तथ्य को स्थापित किया गया है कि सल्लेखना मात्र मृत्यु के वरण की प्रक्रिया नहीं वरन एक सम्पूर्ण, त्रुटिहीन, आदर्श जीवनशैली है और चूंकि मृत्यु भी जीवन का एक अभिन्न अंग है इसलिए स्वयंआगत म्रत्यु की गरिमामयढंग से सहज स्वीकृति ही सल्लेखना की प्रक्रिया की पराकाष्ठा है.
जीवनकाल में चलने वाली सल्लेखना की साधना का समापन भी (जीवन की प्रत्येक अन्य गतिविधियों की ही तरह) वर्तमान जीवन के अंत के साथ ही होजाता है.
नियमितरूप से चलने वाली अन्य गतिविधियों की ही तरह जीवन के नित्यक्रम में चली सल्लेखनापूर्ण जीवन की लम्बे समय की साधना की ओर तो किसी का ध्यान जाता नहीं, पर सामान्यजन की म्रत्यु से प्रथक दिखने वाली सल्लेखनायुक्त यह क्रंदन और शोक से मुक्त गरिमामय म्रत्यु सभी को न सिर्फ विस्मित करती है वरन सभी का ध्यान भी आकर्षित करती है. बस इसीलिये सल्लेखना की प्रक्रिया में भी जीवनभर की साधना तो गौण होगई और मात्र म्रत्यु ही सभी की नजरों में चढ़ गई.
इस तरह सल्लेखनापूर्ण म्रत्यु को जन-जन के बीच चर्चा का बिषय बना देने के पीछे स्वयं हम लोगों का योगदान भी कम नहीं है जिन्होंने नितांत व्यक्तिगत इस साधना को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया. अन्यथा यह तो वह क्रिया है कि - “ज्यों निधी पाकर निज वतन में गुप्त रह जन भोगते----“.
साधना तो एकांत में की जाती है, वह भी गुप्त रहकर, भला साधक और साधना को प्रचार से क्या वास्ता?
जिस प्रकार वस्तुत: तो श्रृंगार स्वयं अपने लिए और अपने जीवनसाथी के लिए किया जाता है, जो अन्यों के लिए सजे-संवरे उसे तो कुछ और ही कहा/समझा जाता है.
कहीं तू भी प्रदर्शन के लिए ही तो त्याग/तपस्या नहीं कर रहा है?
यदि ऐसा है तो ज़रा विचार कर कि तू किस श्रेणी में आता है? ज़रा परख तो कर, कहीं ऐसा तो नहीं है न कि पीतल के ऊपर सोने का पानी चढ़ाहुआ हो!
जो वैभव सम्पन्न होते हें वे ठोस सोने की आभूषण पहिनकर आत्ममुग्ध होते हेंऔर मात्र झूठे वैभव प्रदर्शन की चाहत रखने वाले दरिद्री पीतल पर सोने का पानी चढ़ाकर अपने वैभवशाली होने के झूंठे प्रदर्शन का प्रयास (अपनी द्ररिद्रता का प्रदर्शन) करते हें
हम यदि रत्नव्यवसायी हें तो क्या स्वयं के उपयोग/उपभोग के आभूषण भी बेच डालते हें? कोई अपने हाथकी रोटी (स्वयं का भोजन) तो नहीं बेचखाता है न?
तब धर्म में यह सब क्यों?
धर्म तो नितांत व्यक्तिगत निधि है न? उसमें तो परिजन भी भागीदार नहीं हें न? तब उसकी मार्केटिंग क्यों?
सल्लेखनाधारी के लिए तो प्रदर्शन और प्रचार के मायने ही क्या हें?
तू जिस नाम का ढिंढोरा पीटता है, जिस देह का फोटो छपाता है, वह (सल्लेखनारत व्यक्ति) तो उस नाम और देह को छोड़कर ही जारहा है, यह सारा प्रदर्शन उसके लिए तो हो नहीं सकता है, इस अवसर पर उसे तो इस सबकी आवश्यक्ता है नहीं.
कहीं यह सब हम परिजनों की प्रसिद्धी के लिए तो नहीं ?
कभी-कभी हम स्वयं ही अपने स्वयं के छुपे हुए अभिप्राय (hidden intentions) को ही नहीं पहिचान पाते हें.
आत्मशान्ति और आत्मकल्याण का उपाय मात्र आत्मनिरीक्षण है अन्य कुछ नहीं.
सरकार, न्यायालय और समाज के लिए भी यह गंभीर चिंतन का बिषय है कि आखिर वह इस व्यवस्था को लागू किस तरह करेगी? हमारे सम्पूर्ण जीवन के दौरान नित्यक्रम में अनेक ऐसी क्रियाएं होती हें जिनमें हम अपने जीवन को खतरे में डालते हें, तो क्या उन्हें भी आत्महत्या के प्रयास का नाम दिया जायेगा?
क्या किन्हीं भी संयोगों में एक या अधिकदिन भोजन न करने (उपवास) को आत्महत्या के प्रयास का नाम देकर पुलिस द्वारा प्रताड़ित नहीं किया जाएगा?
स्वाभाविक मृत्यु की ओर अग्रसर उस साधक को, जिसे न तो म्रत्यु का भय हो और न ही जीवन का लोभ, जिसे न तो जीवन से विरक्ति हो गई हो और न ही जो मृत्यु के लिये आतुर व लालायित हो, अपनी भूमिका की मर्यादा में रहकर प्रतिकार (जीवित रहने का उपाय) संभव न होने (अतिचार रहित चिकत्सा संभव न रहने पर) की स्थिति में या जब जीवन का पोषण करने वाला अन्न ही जीवन का शोषण करने लगे अर्थात भोजन का ग्रहण और पाचन स्वाभाविक रूप से स्वत: ही बंद हो जाए तो, अहार का त्याग करदेने/होजाने को और स्वाभाविक रूप से होरही म्रत्यु को सहज भाव से ज्ञाता-द्रष्टा रहकर स्वीकार करने को सल्लेखना या समाधिमरण कहते हें.
इस प्रकार हम देखते हें कि समाधिमरण मौत की प्रक्रिया नहीं है वरन म्रत्यु से पूर्व सात्विक, गरिमामय, उत्कृष्टतम जीवनशैली है. यह तो जीवन में होने वाली एक लम्बी प्रक्रिया है जो म्रत्यु के साथ पूर्णता को प्राप्त होती है पर म्रत्यु तो इस प्रक्रिया में घटित होने वाली मात्र एक समय की घटना है, फिर उसमें हमारा कर्त्रत्व ही क्या है?
यहतो समाधिमरण नाम में मरण शब्द का प्रयोग है जो कि भ्रम उत्पन्न करता है.
उदाहरण के लिए यदि हम कहें कि – “वह १० दिन से अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहा है”
तो क्या यह वाक्य सही है?
नहीं!
क्योंकि अभी म्रत्यु है ही कहाँ कि उससे संघर्ष किया जाए? म्रत्यु तो अभी आयी ही नहीं है.
अभी तो वह जीवन जीरहा है, अपनी सम्पूर्ण जिजीबिषा के साथ.
इस प्रक्रिया के साथ मौत को जोड़ना ही गलत है.
म्रत्यु होते ही तो यह जीवन समाप्त होजाता है तब उसमें करने को बचता ही क्या है? जो भी करना है वह तो जीवन के दौरान, जीवन के लिए ही है.
समाधिमरण या सल्लेखना न तो म्रत्यु को आमंत्रण है और न ही जीवन के प्रति व्यामोह, सल्लेखना तो साधक की भूमिका के अनुरूप वीतरागी वृत्ति है.
सल्लेखना साधककी म्रत्युपर (मौत के खौफ पर एवं जीवन के लोभ पर) विजय है, यह मौत की लालसा नहीं.
अरे! मृत्यु के महाखौफ में , मरते-मरते जीवन बीता
अहो! कोई पल इस जीवन का, इसके भयसे नहीं था रीता
एक समय की इस म्रत्युने,लीललिया जीवन का छिन-छीन
मुक्त हुआ मैं,छोड़ चला जग, है आज मौत का अंतिमदिन
सामान्यजन म्रत्यु के भय से भयाक्रांत मरमरकर जीवन जीते हें, यहाँतक कि उनमें से कई अभागे तो मौत के खौफ से आक्रांत होकर, आत्मघात तक कर बैठते हें.
“जीवन और म्रत्यु” के स्वरूप से परिचित ज्ञानीसाधक उनके यथार्थ को स्वीकार कर जीवन की लालसा और म्रत्यु के भय से रहित जो अनुशासित, सौम्य, सदाचारी, सात् विक, स्वाध्यायी साधक का शांत व संयमित जीवन जीते हें व आयु पूर्ण होनेपर सहज ही स्वाभाविक म्रत्यु को प्राप्त होते हें, वे धन्य हें.
यही सल्लेखना है.
सल्लेखना न तो जीवन का लोभ है और न ही, मौत का भय या म्रत्यु को आमंत्रण.
जन्म पाना, जीवित रहना और म्रत्यु हमारे हाथ में नहीं. हम मात्र व्यामोह करते हें व उस व्यामोह का त्याग हम कर सकते हें, बस उसी व्यामोह के भाव के अभाव का नाम ही सल्लेखना है.
यह सर्वोत्कृष्ट धर्म है.
यह तो जीवन की कला है, म्रत्यु को आमंत्रण नहीं.
सल्लेखना व्यामोह का अभाव है, भय का अभाव है, चाहत का अभाव है, म्रत्यु की चाहत नहीं.
यह अनागत को आमंत्रण नहीं, आगत का स्वागत है.
यह ऐसी व्रत्ति का नाम है कि – “चाहे लाखों बर्षों तक जीवूं या म्रत्यु आज ही आजाबे”
अरे! दुनिया के सभी प्राणी तो हर कीमत पर जीवित रहना चाहते हें और मृत्यु से डरते हें, पर जिसे जीवन का ही मोह न रहा उसे भला म्रत्यु से मोह कैसे होगा, म्रत्यु की आकांक्षा कैसे होगी?
लोग सल्लेखना के बिना जीते भी है और सल्लेखनाविहीन मौत भी होती ही है, पर न तो जीवन सल्लेखना का विरोधी है और न ही सल्लेखना मृत्यु का नाम है.
सल्लेखना तो इक्षाओं के परिसीमन का नाम है, मोह की मन्दता के फलस्वरूप संयोगों के प्रति ग्रद्ध्ता की मन्दता का नाम सल्लेखना है.
सल्लेखना व्रतधारी को न तो जीवन के प्रति मोह ही होता है और न ही म्रत्यु की आकांक्षा या म्रत्यु का आग्रह.
उत्कृष्टतम जीवनशैली सल्लेखना को मात्र म्रत्यु से जोड़कर देखना और आत्महत्या करार देना तेरी बुद्धी का दिवालियापन नहीं तो और क्या है?
यदि धर्मभावना से परिपूर्ण अत्यंत शांत-विवेकी साधक की योग्य गुरु के सानिध्य में सल्लेखनापूर्ण साधना को आत्महत्या करार दिया जाता है तो क्या निम्नलिखित बातों पर भी इसी प्रकार का प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता है?
उक्त स्थिति में क्या सरकार, समाज और परिजन, अस्पताल और डाक्टर सभी हत्यारों, ह्त्या के षड्यंत्र, प्रयास, उकसाने के या गैर इरादतन ह्त्या के या आत्महत्या के लिए मजबूर करने, प्रेरित करने उकसाने और सहयोग करने के अपराध के दोषी करार नहीं दे दिए जायेंगे?
उदाहरण के लिए –
- क्या उन सैनिकों, पुलिसवालों और दमकल कर्मचारियों को आत्महत्या के प्रयास का दोषी और उन्हें नियुक्त करने वाली सरकार को आत्महत्या के लिए उकसाने का/ह्त्या या गैरइरादतन ह्त्या का दोषी नहीं माना जाना चाहिए जो देश व नागरिकों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देते हें; यह जानते हुए भी कि उनके जीवन को खतरा है.
क्या उनके परिजन भी उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने के दोषी नहीं होंगे जिन्होंने उन्हें वह कार्य करने से रोका नहीं?
यदि देश के लिए प्राणों की आहूति "लेने और देने" वाले लाखों देशभक्त सेनानियों के वलिदान का महिमामंडन “शहादत” बतलाकर किया जाता है तो सल्लेखनापूर्वक जीने और सल्लेखनापूर्वक ही वीतराग परिणामों के साथ देहत्याग होजाने की प्रक्रिया को आत्मघात जैसा अधम नाम कैसे दिया जासकता है?
- क्या माननीय न्यायालय के यही तर्क सभी लोगों, परम्पराओं और धर्मों पर सामान रूप से लागू किये जायेंगे?
क्या अलिखित क़ानून क़ानून नहीं होता है? क्या परम्परा से देश और समाज नहीं चलता है? हमारे देश में जो कुछ भी चल रहा है, क्या वह सबकुछ हमारी क़ानून की किताबों में लिखा है?
क्या सभी धर्म और धार्मिक आस्थाओं की समीक्षा सरकार, संसद, क़ानून और न्यायालय ने की है/उन्हें प्रमाणित ओर कन्फर्म किया है?
यदि नहीं तो क्या अब करेगी?
यदि नहीं तो फिर जैनधर्म ही क्यों? सल्लेखना ही क्यों?
क्यों नहीं अन्य धर्मों/साम्प्रदायों की वे सब मान्यतायें, परम्पराएं और गतिविधियाँ गैर कानूनी घोषित करदी जाएँ और उनके संचालन के लिए सरकार और समाज को अपराधी घोषित करके दण्डित किया जाए, जो मानवता की श्रेणी में नहीं आती हें और किसी न किसी रूप में सविधान और क़ानून का उलंघन करती हें.
क्या ऐसा किया जा सकता है? क्या ऐसा किया जाएगा?
ऐसा करने से पहिले ज़रा विचार तो किया होता कि इस देश और इस संसार में किस प्रकार एक समुदाय के लोग किस प्रकार हजारों साल पूर्व घटित एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना का मातम मनाते हुए नगरों के बाजारों में खुलेआम अपनी छाती पीटकर अपनेआपको लहूलुहान तक कर लेते हें, पर उनकी इस धार्मिक आस्था व परम्परा का सम्मान करते हुए कभी किसीने उसपर एक शब्द तक नहीं कहा, उसपर अंगुली नहीं उठाई, उनके उक्त कृत्य को सामाजिक हिंसा या आत्महत्या का प्रयास करार नहीं दिया.
आखिर ऐसा हो भी क्यों?
धर्म पारमार्थिक मार्ग है और ये न्यायालय इस संसार के संचालन की व्यवस्था.
यदि धर्म और धार्मिक क्रियाओं का मर्म माननीय न्यायलय की समझ से परे है तो यह उनकी अपनी समस्या है पर अपनी इस समस्या को किसी धर्म, समाज, समुदाय या महान साधक की पारमार्थिक धर्मसाधना पर घोरसंकट बनाकर थोपने से पहिले न्याय का यह आसन कम्पायमान क्यों न हुआ?
क्या यह उचित नहीं होगा कि धर्म और धार्मिक परम्पराओं पर धर्मभावना पूर्वक ही विचार किया जाए?
(मैं स्वयं कई कारणों से ऐसी परम्पराओं, गतिविधियों और विश्वासों का उल्लेख नहीं कर रहा हूं, सम्बन्धित लोग उपयुक्त विद्वानों से संपर्क करके खोजने का प्रयास करेंगे तो ऐसी अनेकों विसंगतियां सामने आ जायेंगीं)
एक बात और!
जो खतरनाक तो है, पर कहनी तो होगी.
कोर्ट कहता है कि जैन समाज यह साबित करने के लिए पर्याप्त प्रमाण पेश नहीं कर सका कि जैन शास्त्रों में सल्लेखना (संथारा) का विधान है.
(हालांकि समाज के वकील कहते हें कि पर्याप्त प्रमाण पेश किये गए, जिनका नोटिस कोर्ट ने नहीं लिया)
अब भी क्या बिगड़ा है, मैं पूंछता हूँ कि यदि अब भी लिखित प्रमाण पेश कर दिए गए तो क्या कोर्ट सल्लेखना को संवैधानिक तौर से मान्यता दे देगा?
यदि मान्यता देने का आधार यही (धर्म ग्रंथों में उल्लेख) है तो, यदि किसी धर्म के ग्रथों में नरवलि देने की क्रिया को धार्मिकक्रिया कहा गया हो तो क्या कोर्ट उसे भी संवैधानिक और कानूनी करार देगा?
यदि शास्त्रों में वर्णित परम्पराएं और क्रियाकांड उनके वैधानिक घोषित होने के कारण नही हो सकते हें तो, शास्त्रों में उनका न पाया जाना कैसे उनके निषेध का कारण बन सकता है?
और भी अनेकों ऐसे क्षेत्र हें जिनमें सरकार, समाज और परिजन, अस्पताल और डाक्टर सभी को हत्यारों, ह्त्या के षड्यंत्र करने वालों, प्रयास, उकसाने के या गैर इरादतन ह्त्या के या आत्महत्या के लिए मजबूर करने, प्रेरित करने उकसाने और सहयोग करने के अपराध के दोषी करार दिया जा सकता है, यथा –
- जीवन बचने की संभावना ख़त्म होजाने के बाद, जीवन रक्षक उपकरण जैसेकि- heart & lung machine या ventilator हटा लेने को क्या ह्त्या की श्रेणी में नहीं माना जाएगा?
अन्यथा क्या अनंतकाल तक मरीज को इस प्रकार के जीवनरक्षक उपकरणों के सहारे मृतवत जीवन जीने के लिए विवश किया जाएगा?
- एक ऐसा मरणासन्न मरीज जो उचित इलाज उपलब्ध करबाए जाने पर बच सकता है, उसे यथासमय उचित इलाज उपलब्ध न करबाना क्या ह्त्या की श्रेणी में नहीं आ जाएगा?
क्या परिजन, मित्र, समाज और सरकार इसप्रकार की ह्त्या के लिए जिम्मेबार नहीं ठहराए जा सकते हें?
- ऐसे इलाज के लिए अपने आपको प्रस्तुत न करना/न करपाना भी क्या मरीज को आत्महत्या करने के अपराधी की श्रेणी में नहीं ले आएगा?
तो क्या उक्त प्रकार के मरीज को आत्महत्या के प्रयास का दोषी माना जाना चाहिए/माना जाएगा.
- मरणान्तक मरीजों का समुचित इलाज न करने, उनकी उपेक्षा करने, उनपर ध्यान न देने, उन्हें उचित दवाएं उपलब्ध न करबाने, उनका आपरेशन (यदि आवश्यक हो) नहीं करने, और आवश्यक जीवन रक्षक उपकरणों का प्रयोग न करने के लिए क्या डाक्टर, नर्सिंग स्टाफ, अस्पताल, म्युनिसिपल कारपोरेशन, स्वास्थ्य मंत्रालय व राज्य और देश की सरकार इरादतन/बिना इरादतन ह्त्या के दोषी नहीं माने जाने चाहिए ?
- क्या प्रत्येक गाँव में जीवन रक्षक सुबिधायें उपलब्ध न करबाने के लिए सरकार व समाज को ह्त्या/गैरइरादतन ह्त्या या आत्महत्या के लिए उकसाने/सहायता करने का अपराधी नहीं माना जाना चाहिए?
- क्या ऐसे लोगों को आत्महत्या का प्रयास करने वाला और सरकार को आत्महत्या के लिए उकसाने का अपराधी नहीं माना जाना चाहिए जो ऐसे खतरे वाले स्थानों पर रहते हें जहां प्रतिबर्ष नीवननाशक प्राकृतिक बिपदायें जैसे बाढ़, भूकंप, ज्वालामुखी आदि आती हें व हजारों लोग मारे जाते हें?
क्या म्रत्यु सुनिश्चित माने जाने पर भी उनका वहां बने रहना उनका आत्महत्या का प्रयास नहीं कहा जायेगा, क्या सरकार को इसमें उकसाने का या सहयोगी बनने का अपराधी नहीं करार दिया जाना चाहिए?
- क्या किसी डाक्टर द्वारा रोग का गलत डायग्नोसिस करने को या अनुपयुक्त इलाज करने की दशा में मरीज की म्रत्यु होजाने को गैरइरादतन ह्त्या का दोषी माना जाएगा?
- क्या बेघर लोगों का सड़क के किनारे फुटपाथ पर सोना आत्महत्या का प्रयास नहीं माना जाना चाहिए और क्या उन्हें सुरक्षित घर उपलब्ध करबाने में असफल सरकार को आत्महत्या के लिए उकसाने का या गैरइरादतन ह्त्या का दोषी नहीं माना जाना चाहिए?
- भोजन न मिलने की कारण भूख से मरने बाले लोगों की ह्त्या/गैरइरादतन ह्त्या का दोषी सरकार को नहीं माना जाना चाहिए ?
- भोजन न मिलने के कारण कई दिनों से भूखे रह रहे लोगों को आत्महत्या का प्रयास करने वाला या सरकार को आत्महत्या के लिए उकसाने का अपराधी नहीं माना जाना चाहिए?
- किसी व्यक्ति द्वारा किसी से अपने जीवन को खतरे की आशंका व्यक्त किये जाने पर सरकार/पुलिस द्वारा उसे समुचित सुरक्षा उपलब्ध न करबाया जाना क्या गैरइरादतन ह्त्या की श्रेणी में नहीं माना जाएगा?
क्या पुलिस और सरकार को इसके लिए दोषी नहीं माना जाना चाहिए?
उक्त सभी परिपेक्ष्यों में क्या माननीय उच्चन्यायालय के सल्लेखना/संथारा को आत्महत्या का आपराध घोषित करने वाले तर्क सही और उचित हें?
बाहरे माननीय न्यायालय!
कमाल कर दिया!
सबसे बड़ी साधना (धर्म) सल्लेखना को सबसे बड़ा पाप (“आत्मघाती महापापी”) घोषित करडाला!
धर्म को ही अपराध घोषित कर डाला?
इसी प्रकार के अनेकों प्रश्न जनसामान्य के मष्तिष्क में उठने स्वाभाविक हें.
यदि क़ानून स्पष्ट नहीं है या अदालत वर्तमान कानून की व्याख्या सही परिपेक्ष्य में करने में सक्षम नहीं है तो सरकार तुरन्त क़ानून में संशोधन करे.
यदि क़ानून स्पष्ट नहीं है या अदालत वर्तमान कानून की व्याख्या सही परिपेक्ष्य में करने में सक्षम नहीं है तो सरकार तुरन्त क़ानून में संशोधन करे.
मैं और जनसामान्य क़ानून के विद्वान तो नहीं हें पर उक्त कुछ प्रश्न तो सबके मष्तिष्क में उठने स्वाभाविक हें.
मैं नहीं जानता हूँ कि मेरे तर्कों की क़ानून की नजर में क्या वैधता/उपयोगिता है. यदि है तो इनका उपयोग किया जा सकता है, उचित प्रक्रिया पूर्वक ये प्रश्न न्यायालय में उठाये जाए पर सम्भव है कि इन प्रश्नों के जबाब खोजते हुए माननीय न्यायालय सल्लेखना के सन्दर्भ में अपना फैसला बदलने पर सहमत हो जाए. यदि नहीं तबभी ये विचारणीय बिंदु तो हें ही.
इन्हें उचित प्लेटफोर्म पर उचित प्रक्रिया द्वारा प्रभावशाली ढंग से उठाये जाने की जरूरत है.
सल्लेखना (संथारा) का मामला जैनधर्म पर पहिला और अंतिम आक्रमण नहीं है,यदि इस सिलसिले को यहीं नहीं रोका गया तो एक के बाद एक अनेकों बिषय उठेंगे और धर्म के सामने धर्मसंकट खडा होगा.
नोट-
(उक्त लेख में वर्णित सभी विचार गृह्स्थावस्था में सम्पन्न होने वाली सल्लेखना के सन्दर्भ में हें, यहाँ साधु की सल्लेखना के बारे में विचार नहीं किया गया है)
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