Saturday, November 19, 2011

फिर यह सिर्फ आज की ही तो बात है नहीं , यह तो रोज ही होने वाला है , तब क्या मैं रोज ही ऐसा करूंगा ? तब माँ की ममता का क्या होगा ? सिर्फ ट्रेन की ही तो बात नहीं है न ? जीवन के हर क्षेत्र में रोज रोज ही तो यह होने वाला है , जब मैं सर्विस के लिए इंटरव्यू देने जाउंगा तब वहां भी अनेकों ऐसे लोग होंगे जिन्हें उस नौकरी की जरूरत मुझसे ज्यादा होगी , तब क्या होगा , तब मैं क्या करूगा , क्या तब भी मैं अपना हक़ ठुकराकर अन्यों को मौक़ा दे दूंगा ? मैं भी अकेला तो हूँ नहीं , मेरे साथ भी सभी की आशाएं और आकांक्षाएं जुडी हुई हें . तब मुझे क्या करना चाहिए ?

द्वंद्व  ( कहानी )
august 9th , 1983  ( local train , mumbai ) 
मैं कहानी पढने में मशगूल था क़ि यकायक ट्रेन एक झटके के साथ रुक गई और वे वृद्ध सज्जन मेरे ऊपर आ गिरे .
उसके हाथ से किताब गिर गई और पसीने और सिगरेट की मिश्रित दुर्गन्ध मेरे नथुनों में प्रविष्ट हो गई , इस पर मैं झल्ला उठा .
मैं लोकल ट्रेन की उस सबसे पिछली सीट पर बैठा था जो सात लोगों के बैठने के लिए होती है ,यद्यपि उसपर आठ लोग भी आसानी से बैठ सकतें हें और सेकण्ड क्लास के डब्बे में तो उसपर नों लोग बैठते ही हें पर अभी कुछ ही देर पहिले जब वे बृद्ध सज्जन चर्नी रोड स्टेशन से ट्रेन में चड़े और उन्होंने उस सीट पर आठ्बा सबार बनना चाहा तो एक सज्जन नाक भों सिकोड़ कर बोले -"बड़ा कन्ज्स्तेद (congested ) हो जाएगा ",और तब उनके पास खड़े रहने के सिवाय कोई चारा नहीं रहा था .
एक क्षण के लिए मुझे विचार आया भी था क़ि मैं अपनी सीट उन्हें offer करदूं पर तभी कई विचारों और दुविधाओं ने मेरे मनोमष्तिष्क  पर आक्रमण कर उन्हें काबू में ले लिया था .
"आखिर क्यों ? आखिर इन्हें बैठना इतना ही आवश्यक है तो क्यों नहीं ये return हो जाते हें (चर्नीरोड़ से चर्चगेट जाकर उसी ट्रेन में बापिस लौटना ), और फिर मुझे भी कौनसी यह सीट आसानी से मिल गई है ,पूरी तीन ट्रेन छोड़ने के बाद चौथी ट्रेन में भीड़ के साथ संघर्ष करते हुए मरीन लाइंस से चर्चगेट रिटर्न हुआ और बहां पहुँचने पर पता चला क़ि यह ट्रेन तो अंधेरी तक ही जायेगी तब मुझे उतर कर एक ब़ार फिर संघर्ष करके दूसरी ट्रेन पकडनी पडी , और इस प्रक्रिया में पैर में चोट लग गई सो अलग .
पर तभी मुझे ध्यान आया क़ि रिटर्न होना भी तो इनके वश की बात कहाँ है ,अब मुझे ही लो , मैं भी तो रिटर्न होते वक्त सभी को धकियाते हुए तेजी से दौकर ट्रेन पकड़ने का प्रयास करता हूँ तब जाकर चोटिल होने की कीमत पर कभी सीट मिल पाती है , कभी नहीं .
यह सब सोचकर अभी में उन्हें बैठाने के लिए खडा होना ही चाहता था क़ि यकायक मेरे मन में विचार आया क़ि सब लोग क्या सोचेंगे , मुझे पोंगा समझेंगे , यदि ऐसा करना अच्छा माना जाता तो अब तक कोई और भी तो ऐसा कर सकता था न ?
तभी मैंने देखा क़ि अब दादर आने बाला है और वे बृद्ध सज्जन सभी ओर निगाहें दौड़ाकर ललचाई नजरों से ताक रहे हें क़ि यदि कोई उतरने वाला हो तो वह जगह उन्हें मिल जाए ,कहीं ज़रा भी हलचल  होती ,यहाँ तक क़ि कोई खुजलाने के लिए भी हाथ ऊपर करता तो उनकी गर्दन तेजी से उस ओर घूम जाती
बैठने के लिए उनकी इतनी उत्कट आकांक्षा देखकर एक ब़ार फिर मुझे विचार आया क़ि अब मुझे उठ ही जाना चाहिए , बैठना मेरे लिए उतना महत्वपूर्ण और आवश्यक नहीं है जितना उनके लिए है  .
अब मैं मन ही मन शर्मिंदा हो रहा था क़ि मैं अब तक क्यों नहीं उठ खडा हुआ ,मुझे तभी ऐसा करना चाहिये था जब उन्होंने पहिली ब़ार ही बैठने का प्रयास किया था.
क्या मैं किसी की संतुष्टी के लिए इतना भी नहीं कर सकता हूँ ?
ज्यों ही ये  " किसी के लिए " शब्द उसके ख्याल में आया और वह एक ब़ार फिर ठिठक गया . आखिर वह बैठा भी तो किसी और के लिए ही है .किसी को संतुष्ट करने के लिए , अपनी माँ के लिए , अपनी माँ की ममता को तृप्त करने के लिए , वर्ना उसे तो कितना मजा आता था अपने दोस्तों के साथ second class के डब्बे के गलियारे में खड़े होकर यात्रा करने में . तब उसे चुचाप ,गुमसुम सा manners का लबादा ओड़कर बैठने की कोई मजबूरी भी न थी वल्कि दोस्तों के साथ हंसी मजाक और चुलबुली हरकतें करते हुए एक घंटा कब व्यतीत हो जाता था पता ही न चलता था पर माँ की ममता को यह गबारा न था क़ि उसका इकलौता बेटा इस तरह एक घंटे तक धक्के खाता हुआ भीड़ में पिसता रहे .और फिर इस क्रम में उसकी यूनीफोर्म भी तो एक ही दिन में गंदी हो जाती है ,आये दिन चोटें लगती रहती हें , कपडे फटते हें , चप्पल टूट जाती हें .
इसी लिए तो माँ ने अपने अन्य खर्चों में कुछ कटौती करके मेर लिए first class का पास निकलबाया है ताकि उसका लाडला शांति के साथ शान से बैठकर यात्रा कर सके . लेकिन नहीं , इस तरह की परेशानियां तो वह कबसे उठा रहा था पर माँ ने कब first class का पास निकलबाया था ? वो तो उस दिन बाजू बाली माथुर आंटी ने गर्व से कहा था क़ि "मेरा बेटा तो second class में यात्रा कर ही  नहीं सकता है ,बड़ा ही सुकुमार है और फिर यदि बच्चों को आराम ही न दे सके तो फिर कमाते काहे के लिए हें ?------- "
और मामी को बात चुभ गई थी , मेरे आते ही बोलीं थीं "मोनू ! तुम कल ही first class का पास निकलबा लो , उन्होंने गेस का नया चूल्हा लाने के लिए बचाकर रखे पैसे मेरी ओर बढाते हुए कहा -" चूल्हे का क्या है अगले महीने आ जाएगा ,थोड़ी परेशानी ही सही ,
मैंने कहा भी था क़ि "माँ अभी मेरा पास पूरा होने तीन दिन बाकी हें " पर बे बड़ी लापरवाही से बोलीं थीं " कोई बात नहीं ,कमसे कम तू अब शान्ति से बैठकर तो यात्रा कर सकेगा न ? " उनके स्वर में ममता ,संतुष्टी और गर्व का मिश्रित भाव स्पष्ट झलक रहा था .
उस दिन के बाद कभी कभी रोज रोज ही मेरे लौटने पर वे पूँछ लिया करतीं थीं क़ि सीट तो मिल गई थी न ? कोई परेशानी तो नहीं होती है ? और सकारात्मक जबाब पाकर उनके चेहरे पर संतुष्टी  के भाव उभर आते .
जिस दिन किसी कारण से  मुझे सीट न मिलती तो वे कहतीं क़ि " ऐसी क्या जल्दी थी , दूसरी ट्रेन से आ जाते , आखिर first class का पास --------."
अब मैं इस दुविधा में था क़ि बैठे रहकर माँ को संतुष्ट करूं या उनको सीट देकर उनकी पीड़ा हरूं . 
एक बात और , यदि मैं स्वयं खड़े होकर उन्हें बिठा भी देता हूँ तो मात्र एक जाने को बिठा देने से क्या होगा , अनेकों और भी लोग तो ऐसे हें जिन्हें बैठने की बहुत आवश्यकता है , अब उनके लिए वह क्या कर सकता है ? 
फिर यह सिर्फ आज की ही तो बात है नहीं , यह तो रोज ही होने वाला है , तब क्या मैं रोज ही ऐसा करूंगा ? तब माँ की ममता का क्या होगा ?
सिर्फ  ट्रेन की ही तो बात नहीं है न ? जीवन के हर क्षेत्र में रोज रोज ही तो यह होने वाला है , जब मैं सर्विस के लिए इंटरव्यू देने जाउंगा तब वहां भी अनेकों ऐसे लोग होंगे जिन्हें उस नौकरी की जरूरत मुझसे ज्यादा होगी , तब क्या होगा , तब मैं क्या करूगा , क्या तब भी मैं अपना हक़ ठुकराकर अन्यों को मौक़ा दे दूंगा ?
मैं भी अकेला तो हूँ नहीं , मेरे साथ भी सभी की आशाएं और आकांक्षाएं जुडी हुई हें .
तब मुझे क्या करना चाहिए ? 
जब मैं सबकी मदद तो कर ही नहीं सकता तो फिर क्यों न अपनी ही मदद करूं , अपने ही लोगों को संतुष्ट करूं .
अभी यह विचार श्रंखला चल ही रही थी क़ि अचानक ट्रेन में तेजी से ब्रेक लगा औए वे एक ब़ार फिर मेरे ऊपर आ पड़े और उनके मुंह से अनायास ही निकल पडा " हे राम "
मुझे अपने दादाजी की याद आगयी , ऐसे अवसरों पर उनके मुख से भी यह़ी शब्द निकला करते थे .
मैं अचानक उठ खडा हुआ और मेरे मुख से निकल पडा - please sit here .

-Parmatmprakash Bharill

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